खरोंच / कविता / अनीता सैनी
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हम दोनों ने
उदय होते सूरज को प्रणाम किया
दुपहरी होते-होते वहाँ से निकल गए
हमारा चले आना उनके लिए वरदान था
साँझ सफ़र में कई-दफ़'आ मिली
हमने रात नहीं देखी
रात के लुभावने रेखाचित्र देखे
उसने कहा-
“कभी मिलना हो रात्रि से
तब तुम ठहर जाना
शीतलता की गोद
उजाले का प्रमाण है वह।”
रात का भान भूल चुकी मैं
हमेशा उससे दुपहरी का ज़िक्र करती
दुपहरी मेरे रग-रग में बसी थी
जैसे बसा था मेरे हृदय में देहातीपन
मैंने कहा-
“देहाती स्त्रियाँ धतूरे-सी होती हैं
वह सिर्फ़
कविता-कहानियों में तलाशी जाती हैं।”
धतूरे के ज़िक्र से उसे
महाशिवरात्रि का स्मरण हो आया
समर्तियों की उड़ती धूल, किरकिरी
उसकी आँखों में रड़कने लगी
सहसा मुझे ख़याल आया
वह मरुस्थल में रहने का आदी नहीं था।