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मंगलवार, मार्च 25

तुम कह देना

तुम कह देना / अनीता सैनी
 २२ मार्च २०२५
…..
एक गौरैया थी, जो उड़ गई,
 एक मनुष्य था, वह खो गया।
 तुम तो कह देना
 इस बार,
 कुछ भी कह देना,
 जो मन चाहे, लिख देना,
 जो मन चाहे, कह देना।
कहना भर ही उगता है,
अनकहा
खूंटियों की गहराइयों में दब जाता है,
 समय का चक्र निगल जाता है।
ये जो मौन खड़ी दीवारें हैं न,
 जिन पर
 घड़ी की टिक-टिक सुनाई देती है,
 इनकी
 नींव में भी करुणा की नदी बहती है,
 विचारों की अस्थियाँ लिए।


सोमवार, मार्च 24

कविता

कविता-

माथे पर लगी

न धुलने वाली कालिख नहीं है,

और न ही

आत्मा का अधजला टुकड़ा है।


वह

सूखी आँखों से बहता पानी है —

कभी न पूरी होने वाली 

प्रतीक्षा है

शिव के माथे पर चमकता

अक्षत है।


गुरुर करते

वे तीन बेलपत्र हैं,

जिन पर लगा लाल चंदन

और मधु,

प्रीत की भाषा पढ़ाता है।


शब्दों के वार न तोड़ो,

वह

शिवालय के चौखट की रज़ है।



सोमवार, फ़रवरी 17

निराशा का आत्मलाप


निराशा का आत्मलाप / अनीता सैनी

१६फरवरी २०२४

….

उबलता डर

मेरी नसों में

अब भी

सांसों की गति से तेज़ दौड़ रहा है,

जो कई रंगों में रंगा,

चकत्तों के रूप में

मेरी आँखों में उभर-उभर कर

आ रहा है।


आँखों से संबंधित रोग की तरह,

जो

मेरी काया को धीरे-धीरे ठंडा कर रहा है

और आत्मा को गहरे शून्य में डुबो रहा है।


अलविदा—

गहरे कोहरे में हिलता हाथ,

या जैसे

कोई समंदर के बीचो-बीच

डूबता हुआ एक हाथ।


मुझे पता है,

यह एक कछुए का हाथ है,

परंतु

ये मेरे वे निराशाजनक दृश्य हैं,

जिन्हें मुझे अकेले ही जीना है।


रविवार, जनवरी 19

अधूरे सत्य की पूर्णता


अधूरे सत्य की पूर्णता / अनीता सैनी
१८जनवरी २०२५
......
"स्त्री अधूरेपन में पूर्ण लगती है।"
इस वाक्य का
विचारों में बनता स्थाई घर 
अतीत पर कई प्रश्नचिह्न लगता है।
उससे कोई फर्क नहीं पड़ता
कि वह,
कितना बीमार और उदास था।

वर्तमान पर पड़ते निशान 
भविष्य को अंधा ही नहीं करते,
धरती की काया,
उसकी आत्मा बार-बार तोड़ते हैं।
उन्हें नहीं लिखना चाहिए
कि नैतिकता फूल है,
या
फूलों से खिलखिलाता बगीचा है।

उन्हें लिखना चाहिए
कि स्वस्थ नैतिकता से
लदे फूलों की जड़ों में भी मरघट हैं,
सूखा जंगल है,
जहाँ सूखी टहनियाँ, कांटे ही नहीं,
जड़ें भी पाँव में चुभती हैं।

पूर्वाग्रह टूटने के लिए बने हैं,
टूट जाने चाहिए,
वे ताजगी देते हैं,
पीड़ा नहीं।

वह,
अपना सब कुछ खो देना चाहती है।
इसलिए नहीं
कि वह एक पीड़ित पितृभूमि से है,
इसलिए भी नहीं
कि उसके पैरों पर लगी मिट्टी
आज भी उस पर हँसती है।

इसलिए
कि वह
अपनी सच्चाई से प्रेम करती है।

सोमवार, जनवरी 13

बालिका वधू

बालिका वधू / अनीता सैनी
११जनवरी २०२५
……
बालिका वधू—
एक पात्र नहीं है,
ना ही
सफेद पंखों वाली मासूम परी है।
जिसके पंख काट दिए जाते हैं,
हाथ की छड़ी छीन ली जाती है।
तब उसका जादू
घर की चारदीवारी में नहीं चलता,
और सिर पर रखा पानी का मटका
हाथों से बार-बार गिर जाता है।
कभी चूल्हे की रोटी जल जाती है,
और
जली रोटी उसे आत्मग्लानि से भर देती है।

वह भी नहीं,
जिसमें पूरा परिवार
पच्चीस-तीस वर्ष की युवती ढूंढ़ता है।
और वह भी नहीं,
जिसके
पायल-बिछुआ चुभने पर
मां के सामने बच्ची की तरह
बिलख-बिलखकर रोती है।
वह तो कतई नहीं,
जिसने घूंघट न निकालने की ज़िद में
सप्ताहभर खाने का मुंह न देखा हो।

यह एक गांठ है,
पुरुष के अहं की गांठ,
जिसे एक स्त्री ताउम्र गूंथती है—
रूप-रंग, हाव-भाव, स्वभाव
और चरित्र की जड़ी-बूटियों से।

और एक दिन पुरुष इसे
खोलने की जद्दोजहद में अंधा हो जाता है।
इतना अंधा कि वह
अंधेपन में कई-कई ग्रंथ रच देता है।
और समय इसे
समझ न पाने की पीड़ा से जूझता है।


रविवार, जनवरी 5

बुकमार्क


बुकमार्क / अनीता सैनी

३जनवरी २०२५

……

पुस्तक —

प्रभावहीन शीर्षक,

आवरण, तटों को लाँघती नदी,

फटा जिल्द,

शब्दों में 

उभर-उभरकर आता ऋतुओं का पीलापन,

कुछ पन्नों के बाद

पाठक द्वारा लगाया बुकमार्क

 उसे रसहीन बताता रहा।


पुस्तक के अनछुए पन्ने,

व्यवस्थित रहने का सलीका ही नहीं,

मौन में मधुर स्मृतियों को पीना सिखाते रहे।

उसे बार-बार हिदायत देते रहे—

न पढ़ पाने की पीड़ा में

 न अधिक चिल्लाकर रोना है,

और न ही

ठहाका लगाकर हँसना है।

चेतावनी—

सिले होठों से भाव अधिक मुखर होते हैं।


इतने शालीन ढंग से टिके रहना,

कि समय

पन्नों से हवा के ही नहीं,

आँधियों के भी आँसू पोंछ सके।


पुस्तक— 

कोने में 

स्वयं को पढ़ती है, पढ़ती है

तटों को तोड़ती एक-एक धारा को।

उसे न पढ़ पाने की पीड़ा नहीं कचोटती,

कचोटता है—

बिना पढ़े लगाया बुकमार्क।



सोमवार, दिसंबर 30

पथ की पुकार

पथ की पुकार / अनीता सैनी 
२८दिसंबर२०२४
तुम कभी मत कहना
कि संयुक्त परिवार टूट रहे हैं,
पुश्तैनी घर ढह रहे हैं।
जर्जर होते दरवाज़े
अब किसी का हाथ पकड़कर नहीं पूछते—
"तुम कौन हो?
कहाँ से आए हो?
और कहाँ जा रहे हो?"

मत पूछना कि घर का बड़ा बेटा
छत बनकर क्यों नहीं ठहरता।
खिड़कियाँ मौन क्यों हैं?

तुम माफ कर देना,
माफ करना आसान हो जाता है
जब पता चलता है
कि ये गलियाँ आपको इसलिए धकेल रही थीं,
ताकि आप उन रास्तों से मिल सको
जो आपको पुकारते रहे हैं।

 गहरी अनहद पुकार, एक धीमा स्वर,
जो आपकी आत्मा ने सुना हो,
आत्मा समझ को समझा सके 
 कि पथ पुकारते हैं, मंज़िल नहीं।

शनिवार, दिसंबर 21

अवश स्वप्न

अवश स्वप्न / अनीता सैनी

२१ दिसम्बर २०२४

…..

वेदना दलदल है जो 

अमिट भूख लिए पैदा होती है।

बहुत पहले यह

कृत्रिम रूप से गढ़ी जाती है,

फिर यह

स्वतः फैलने लगती है।

 अंबर-सा विस्तार 

 चाँद न तारे 

बस सूरज-सा ताप 

चेतना ऐसी की पाताल को छू ले।


एकांकीपन इसका आवरण,

धीरे-धीरे और बढ़ा देता है।

फैलाव इतना बढ़ जाता है कि

वहाँ तक किसी का हाथ नहीं पहुँचता।

न ही रस्सियाँ डाली जा सकती हैं,

और न ही लट्ठे।


और एक दिन, 

अतीत

वर्तमान से भूख मिटाने लगता है

 और वह पौधा, उसी में समा जाता है।


रविवार, दिसंबर 15

टूटे सपनों का सिपाही


टूटे सपनों का सिपाही / अनीता सैनी
१०दिसम्बर२०२४
….
न देश है, न कोई दुनिया,
न सीमा है, न ही कोई सैनिक।
कोई किसी का नागरिक नहीं, ना ही नागरिकता।

एक खालीपन, और नथुनों से दौड़ती वेदना,
कई-कई पहाड़ों को पार कर,
चोटिल अवस्था में लुढ़कती और बस
लुढ़कती ही रहती है।

कहती है—
“उसे इतने वर्षों से गढ़ा जा रहा था।”
“शुभ संकेत है इस आभास का होना।”

कहते हुए वह खिलखिलाई,
और वह गहरे में टूट जाता है।

वे दोनों एक-दूसरे की आँखों में देखते हैं,
और देखते ही रहते हैं।
वह, माता-पिता के साथ बच्चों की गिनती करता है,
बच्चों के खोए माता-पिता को ढूँढ़ता है।

बारूद के ढेर पर खड़ा बिन पैरों को उचकाए,
हथियारों की निगरानी करता है,
और भी बहुत कुछ करता है, परंतु कहता नहीं।

वे शान के खिलाफ हैं।
कहता है—
“सबसे कठिन है खोए माता-पिता को ढूँढ़ना।
वे नहीं मिलते, और फिर बच्चों को बहलाना।”

उसे हथियार चलाने आते हैं।
कहता है—
“AK-47 साथ रखता हूँ।”

वह, वह सब कुछ करता है, जो उसे कहा जाता है।
एक शांति के दूत को,
यही सब गहरे में बैठकर खाए जाता है।