समेटे आग़ोश में दोनों जहां
सिसक रही क्यों आज
सृष्टि कहूँ या प्रकृति
नारी कहूँ या नारायणी
स्वरुप इनका एक
उलझन में वो बैठी आज
निर्णय हो जैसे गंभीर
सीरत ठीक नहीं
सूरत में है खोट
क्यों मानव बारम्बार कर रहा तिरस्कार मेरा
उलझी-सी वो बैठी आज निर्णय हो जैसे गंम्भीर
पिटारा भावनावों का समेटे
निकली किस सफ़र पर आज
साँसों में है गर्मी
रुख़ भी प्रचंड आज
अस्तित्व अपना बचाने
दौड़ रही क्यों आज ?
दौड़ घबराहट की या बौखला गयी वो आज
सदियों से सहती आयी इसे हुआ क्या आज ?
देखो ! बौरा गई पगली
हर मानव का यही भाव
अस्तित्त्व अपना बचाने दौड़ रही क्यों आज
- अनीता सैनी
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