सहसा ! फिसल गयी वह
या चलते-चलते बदल गयी
चक्षु क्यों चकरा गये ?
क़दम क्यों लड़खड़ा गये?
कुदरत फूट पड़ी क्यों ?
अंदर ही अंदर टूट पड़ी क्यों?
फैला पायी बस इतना
मनुज की निर्बोध आँखें |
मनुज की निर्बोध आँखें |
सहम गयी क़ुदरत भी आज
तरु-तरूवर भी सूखे,
चित्रभानु का रुख़ भी तेज़
चित्रभानु का रुख़ भी तेज़
वारिद क्यों रहा न मेरा
मनुज को अब होश कहाँ ?
मिजाज़ मेरा छूट रहा घंमड मेरा टूट रहा
थी कभी प्रवृत्ति हूँ आज विकृति के कगार पर
अक़्ल का अज़ण खुदगर्ज़ मनुज
जर्जर आँचल सूख रहा क्यों ?
मंडरा रहे बादल काल के
विचलित मन या भ्रम मेरा
डोर समय की सिमट रही या धीरे-धीरे टूट रही
ग्रास काल का बन रही या समय ख़त्म हुआ अब मेरा
ताना-बाना यादों का बुन रही क़ुदरत आज
चंद्रभानु के तेवर तेज़, शशि की ठण्डी छाँव है आज
शशि संग अनुराग अमर वक़्त निकृष्ट साथ अजर है |
- अनीता सैनी
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