पल -पल बहती,
हर पल कहती,
ज़हन में मचलती,
साँसों में सुलगती,
प्रज्ञा को दबाती,
कोई और नहीं,
मानव की तृष्णा,
उसे सताती।
नैतिकता को दूर बिठाती,
कृत्य-अकृत्य सब करवाती,
राह सुगम और
जल्द पहूँचाये,
इसी सोच को गले लगाती,
कोई और नहीं,
यही तृष्णा मानव को नचाती ।
लालायित मन दौड़ लगाता,
सुकूं की छाँव कभी न पाता,
ऐसी विपदा,
हार न पाती,
थक जाता,
लड़खड़ाता जाता,
कोई और नहीं,
यही तृष्णा,
आँचल थामे ख़ूब लुभाती ।
हर पल कहती,
ज़हन में मचलती,
साँसों में सुलगती,
प्रज्ञा को दबाती,
कोई और नहीं,
मानव की तृष्णा,
उसे सताती।
नैतिकता को दूर बिठाती,
कृत्य-अकृत्य सब करवाती,
राह सुगम और
जल्द पहूँचाये,
इसी सोच को गले लगाती,
कोई और नहीं,
यही तृष्णा मानव को नचाती ।
लालायित मन दौड़ लगाता,
सुकूं की छाँव कभी न पाता,
ऐसी विपदा,
हार न पाती,
थक जाता,
लड़खड़ाता जाता,
कोई और नहीं,
यही तृष्णा,
आँचल थामे ख़ूब लुभाती ।
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