विचारों का प्रलय हृदय को क्षुब्ध,
मार्मिक समय मन को स्तब्धता के,
घनघोर भंवर में डुबो बैठा,
गुरुर के हिलोरे मार रहा मन,
स्वाभिमान दौड़ रहा रग-रग में,
झलकी न आँखों से लाचारी,
न ज़िदगी ने भरा दम,
न लड़खड़ाये क़दम।
अकेलेपन के माँझे में उलझी
ज़िंदगी से करती तक़रार
नहीं वह लाचार,
समाज के साथ चलने का,
हुनर तरासती शमशीर रही वह |
देश ऋणी उसका,
हर रिश्ते की क़द्रदान रही वह,
उठते मंज़र को साँसों में पिरोया,
हर बला को सीने से लगाया,
न त्याग में कटौती,
न माँगी ख़ुशियों की हिस्सेदारी,
फिर क्यों कहता समाज,
शहीद की पत्नी को ,
बेवा और बेचारी ?
सराबोर क्यों न करें,
उस ख़िताब से,
जिसकी वह हक़दार ?
-अनीता सैनी