बुधवार, अक्तूबर 17

वक़्त का आलम



   
                                          
अपनेपन  का नक़ाब वक़्त रहते  बिखर  गया,
वक़्त का आलम रहा कि  वक़्त रहते सभँल गये |

हर   बार   की  मिन्नतों  से  भी वो  नहीं लौटे, 
 इंतज़ार में  हम, वो  दिल कहीं और  लगा बैठे|

 मयकशी  के  आलम   में  जलते  रहे    ता -उम्र,
 झुलस गयी  जिंदगी ,अँगारों  पर चलना सीख गये |

आलम   ही  ऐसा  बना  कि   बर्बाद  हो  गये ,
बर्बादी  ने  लगाये  चार चाँद, मशहूर  हो गये |

सारी   शिकायतें   सारे  शिक़वे  ख़त्म  हो  गये,
आज  हम  दानदाता  और  वह  मोहताज़  हो  गये |

               - अनीता सैनी 




कोई टिप्पणी नहीं:

एक टिप्पणी भेजें