ज़माना कहता, उलझे-उलझे-से रहते हो,
कैसे कहूँ यही वो मंज़र जिसनें चलना सिखाया?
यूँ तो ज़िंदगी ने हमें ख़ूब नवाज़ा,
उलझन ही रही मुक़्क़दर में, सुकूं की छाँव न मिली।
मंज़िल के दरमियां उलझनों का साथ लाज़मी था ,
चंद क़दम हौसले संग रखे, सामने मंज़िल के निशां थे |
उलझनों में तमाम मुश्किलों के हल मिले ,
टेढ़े-मेढ़े रास्तों पर मंज़िल के निशां मिले |
खारेपन में कोई तलब रही होगी वरना यूँ,
उलझनों में उलझी गंगा ढूँढ़ें न सागर के निशां|
मुहब्बत होने लगी उलझनों से, कमबख़्त,
बिगड़कर जाती, सँवर कर आती,और सीने से लग जाती।
- अनीता सैनी
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