सज्दे में झुका शीश, दुआ बन जाती है माँ ज़िंदगी के तमाम ग़म, सीने से लगा भुला देती माँ चोट का मरहम, दर्द की दवा, सुबह की गुनगुनी धूप है माँ वक़्त-बे-वक़्त हर गुनाह धो देती, नाजुक़ चोट पर रो देती है माँ नाज़ुक डोरी से रिश्तों को सिल देती, उन्हीं रिश्तों में सिमट जाती है माँ -अनीता सैनी
सादर नमस्कार,
जवाब देंहटाएंआपकी प्रविष्टि् की चर्चा रविवार ( 09-05-2021) को
"माँ के आँचल में सदा, होती सुख की छाँव।। "(चर्चा अंक-4060) पर होगी। चर्चा में आप सादर आमंत्रित है.धन्यवाद
…
"मीना भारद्वाज"
सुंदर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंमातृ दिवस पर भावपूर्ण रचना
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर ! माँ जिसका कोई पर्याय नहीं !!
जवाब देंहटाएंबस माथा झुका हुआ है माँ के आगे ।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर रचना सखी
जवाब देंहटाएंबहुत ही कम शब्दों में माँ की भावनाओं को परिभाषित कर दिया। सुन्दर व हृदयस्पर्शी रचना।
जवाब देंहटाएं