मासूमित के स्वरुप में सिमटी
प्रेम के लिबास में लिपटी
होले से क़दम बढ़ाती
आँखों में झलकती
ह्रदय में समाती
स्नेहगामिनी
मनमोहिनी
अपनत्त्व सहेजती
तुलसी-सी पावन
मन-मंदिर में विराजित
सहेज माम्तत्व
अपनत्त्व की बौछार
शालीनता की मूरत
ऐसी रही
आस्था की सूरत |
समय की मार ने
अपनों के प्रहार ने
जल रही द्वेष की दावाग्नि में
दोगले स्वार्थ ने
अपना शिकार बनाया !
सोच-समझ के भंवर में गूँथी
आज बिखर रही आस्था |
तपता रेगिस्तान
जेठ की दोपहरी
खेजड़ी के ठूँठ की
धूप न छाँव
दुबककर बैठी आस्था
उम्मीद के दामन को लपेटे
दोपहरी ढलने का इंतजार
चाँदनी रात की मनुहार
चंद क़दम अस्तित्त्व का छोर
मन में सुलग रही यही कोर
महके गुलिस्ता हो एक नई भोर |
- अनीता सैनी
बहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंसह्रदय आभार आदरणीय
हटाएंसादर
वाह बहुत ही बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंस्नेह आभार सखी
हटाएंसादर
अतिसुन्दर
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार सखी
हटाएंसादर