दिन को सुकून न रात को चैन ,
कुछ पल बैठ क्यों है बेचैन ?
मन बैरी रचता यह खेल,
तन बना कोलू का बैल
मन की दौड़ समय का खेस ,
ओढ़ मनु ने बदला है वेश !
मन की पहचान मन से छिपाता,
तिल-तिल मरता,वेश बदलता !
मनु को मन ने लूट लिया,
जीवन उस का छीन लिया !
बावरी रीत परिपाटी का झोल,
तन बैरी बोले ये बोल !
तन हारा !
समय ने उसको ख़ूब लताड़ा,
बदल वेश जीवन को निचोड़ा !
मन चंचल !
सुलग रही तृष्णा की कोर ,
थका मनु न छूटी डोर !
-अनीता सैनी
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