परत दर परत नसीब पर बिछाते रहे ,
ख़ामोशी भरी निगाहों से उसूल,
कहीं हालात के ,
कहीं मन के रहे उसूल ,
कुछ कर्म से उपजे ,
रहे भाग्य की देन,
न सह पाई ,
न कह पाई ,
समय के हाथों उभर रहा ,
खेला हुआ यही खेल !!
दिल कहें यही खेल,
ख़ामोशी से बैठी चौखट पर,
देख रही कर्मो का खेल ,
अहसास हुआ,
मिला न कोई मेल !!
एक पड़ाव और गुज़रा ,
ख़िला एक नायाब फूल ,
हर दिन एक ख़्वाब
जिंदगी बनी नायाब ,
दोहरा रही हूँ वही हिसाब,
जो बोया मैं ने हाथों से,
निकले बन किस्मत के फूल,
क्यों कहु जिंदगी ने चुभोई कोई शूल ?
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