शनिवार, दिसंबर 1

उसूल


                                   


 परत दर परत नसीब पर बिछाते रहे , 
   ख़ामोशी भरी निगाहों से उसूल, 
       कहीं  हालात के  ,
   कहीं मन के रहे  उसूल   ,
      कुछ कर्म  से उपजे ,
     रहे  भाग्य की देन, 
      न  सह  पाई , 
     न  कह  पाई ,
समय के हाथों  उभर रहा ,
  खेला  हुआ यही  खेल !!

     दिल  कहें  यही  खेल,  
  ख़ामोशी  से  बैठी चौखट पर, 
  देख रही  कर्मो का खेल ,
     अहसास हुआ,
     मिला न कोई मेल !!

   एक पड़ाव और  गुज़रा , 
   ख़िला  एक नायाब फूल ,
      हर दिन  एक ख़्वाब 
     जिंदगी बनी  नायाब ,
  दोहरा  रही  हूँ वही  हिसाब, 
  जो बोया  मैं ने  हाथों  से, 
  निकले बन किस्मत के फूल, 
  क्यों  कहु  जिंदगी ने चुभोई कोई शूल  ?   


  

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