मंगलवार, दिसंबर 18

ख़ामोश होते रिश्ते


                                                   
 सिसक    रहा    सन्नाटा, 
ख़ामोशियों  की गुहार  यही , 
रिक्त   हो  रही   साँसों  का ,
 क्या  यही    हिसाब    दोगे ? 

  बेज़ुबान   शब्दों   को ,
 कब जुबान दोगे ? 
 जल रहे अंहकार में  रिश्ते   , 
 मानवता  की  ममता  क्या,  
यही   सिला    दोगे  ?

  ठिठुर  रहे  जज़्बात ,
सपनों  का    जला   अलाव , 
स्वार्थ   का   जामा  पहन  ,
 ऊष्ण   की  करे  पुकार, 
ठिठुर  रहे   ममत्त्व   को  क्या, 
 यूँ   हीं  ठुकरा  दोगे  ?

रजत   मेखला   की  कालिख ,
मन   में   मचाये  उत्पात, 
अंजानी  अँगुली   ढूंढ  रहा  मन ,
खुलवा  सकू   रिश्तों    का  बंद ,
ओझल-सी इन  राहों  में   क्या, 
 यूँ   ही   ठुकरा    दोगे ? 

उफान  आते  आदतन  से,  
रिश्तों    को  चखकर   देखा, 
व्यवहार  की  लवणता  परखे ,
 दीन  की  हालत  देख  क्या, 
 यूँ  ही  ठुकरा  तो  न   दोगे ? 

 © अनीता सैनी 

7 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. तहे दिल से आभार प्रिय सखी दीपा जी
      सादर

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  2. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (24-7-22} को "सफर यूँ ही चलता रहें"(चर्चा अंक 4500)
    पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है,आपकी उपस्थिति मंच की शोभा बढ़ायेगी।
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    कामिनी सिन्हा

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  3. कोमल भावों में गुँथी बहुत सुन्दर भावाभिव्यक्ति ।

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  4. रिश्तों पर एक समग्र दृष्टि डालती रचना ।

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