हवा ही ऐसी चली ज़माने की, कि बदनाम हो गयी,
अमीरी बनी सरताज़, ग़रीबी मोहताज़ हो गयी |
नशा शोहरत का सर चढ़ गया है इस क़दर,
ग़रीबी की हिमाक़त देखो यहाँ सरेआम हो गयी |
सदा रौंदी गई कुचली गयी अभावों के तले,
ग़रीबी मिटाने की कोशिशें भी नाक़ाम हो गयीं |
ऐसा भी न था कि ज़माना मिटा न सका मेरी हस्ती,
इत्तिफ़ाक़ ही ऐसा था,कुछ समा गयी मुझमें,
किसी को मैं निगल गयी |
- अनीता सैनी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (10-03-2019) को "पैसेंजर रेल गाड़ी" (चर्चा अंक-3269) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय चर्चा में मुझे स्थान देने के लिए
हटाएंसादर
सोचने को मजबूर करती है आपकी यह रचना !
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय उत्साहवर्धन टिप्णी के लिए
हटाएंसादर
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंआभार आदरणीय
जवाब देंहटाएंसादर
सदा रौंदी गई कुचली गई अभावों के तले
जवाब देंहटाएंग़रीबी मिटाने की कोशिशें भी नाक़ाम हो बेहतरीन प्रस्तुति सखी
स्नेह आभार सखी
जवाब देंहटाएंसादर
वाह!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
जवाब देंहटाएंप्रणाम
सादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना हमारे सोमवारीय विशेषांक
११ मार्च २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
आभार श्वेता जी
जवाब देंहटाएंसादर
अभिशाप है गरीबी अपने आप में ...
जवाब देंहटाएंमेरा मेरा का भाव ही है अब ... गरीब को नहीं सोचता ... सार्थक रचना ...
सहृदय आभार आदरणीय
हटाएंसादर
वाह !!बहुत खूब सखी
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार सखी
हटाएंसादर
सदा रौंदी गई कुचली गई अभावों के तले
जवाब देंहटाएंग़रीबी मिटाने की कोशिशें भी नाक़ाम हो गई
बहुत सुन्दर ...सार्थक...सटीक....
वाह!!!
आभार आदरणीया
हटाएंसादर
बहुत सुन्दर बिटिया अनिता सैनी
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार चाचा जी
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार उत्साहवर्धन टिप्णी के लिए
सादर नमन
हवा ही ऐसी चली ज़माने की, कि बदनाम हो गई
जवाब देंहटाएंअमीरी बनी सरताज़, गरीबी मोहताज़ हो गई .....
बहुत सुंदर अनिता जी।
सहृदय आभार आदरणीय
हटाएंसादर नमन