रविवार, मई 26

क्यों बदलें हम



                                                

                                                                                
शालीनता की परिभाषा, 
 कानों में चुभने  लगी, 
गाँधी के देश में गाँधीगीरी की,  
परिपाटी पनपने  लगी, 
ख़ामोशी से ताकती निगाहें, 
गौण होती इंसानियत, 
बड़प्पन का मुखौटा, 
मुखौटे में  दम तोड़ता पिंजर |

ख़्वाहिशों  से  जूझता  मन, 
मन  में  सूक्ष्म  बीज ख़्वाहिशों के, 
ख़्वाहिशों  से  पनपती  लापरवाही, 
लापरवाही  का न्यौता  घटना और  हादसों को, 
हादसों का शिकार बनते, 
अंजान और बेख़बर लोग, 
जिन्हें अगले पल का, 
 आभास मात्र भी नहीं |

मन  में  होने वाली ग्लानि, 
 धुल  जाती  वक़्त  के साथ, 
   तन  की कल्मषता  गंगा  स्नान  से, 
कितना आसान, 
तन और मन को साफ़ रखना |

वक़्त के साथ यह परिपाटी, 
 लगा  रही    दौड़, 
 क्यों बदलें  हम ?
सामने वाला क्यों नहीं? 
 शालीनता में छिपा अहंकार, 
ख़ामोशी में छिपा द्वेष, 
द्वेष मन के साथ, 
 निगल जाता   तन को, 
अपने हों  या  पराये, 
 एक  ही  नज़र  से ताकता |
  

   - अनीता सैनी 

शुक्रवार, मई 24

ग़लीचा अपनेपन का


                                         
                                                                                            
क्यों न हम बिछा  दें, 
एक ग़लीचा  अपनेपन का, 
प्रखर धूप में, 
जलते अशांत चित पर, 
स्नेह, करूणा  और बंधुत्व  का | 

अपनेपन के रंगों  में  रंगा, 
मख़मली  एहसासों से सजा, 
मनभावन ग़लीचा, 
सजाये  मन  के  द्वार  पर |

किसी प्रिये  के लिए   ही क्यों, 
सभी को प्रिय बनाने के लिये, 
 कुछ पल के लिये ही क्यों, 
 हर पल के लिये |

न भावों को दौड़ाएँ, 
न उम्मीद की गठरी रखें |

ग़लीचा  पैरों पर  या, 
पैर ग़लीचे पर, 
ख़यालों  में नहीं इत्मिनान से चलें |

गलत-फ़हमी की जमीं  धूल, 
वक़्त-बे-वक़्त  झाड़ ले, 
न  जमे  द्वेष, 
द्वेष  के  एहसास को मिटा दें|


वक़्त  की तेज़ धूप में उड़ जाता, 
 रंग ग़लीचे का, 
 समेट  देती हैं  ज़रूरतें, 
ग़लीचे के मख़मली  एहसास को |

 रखें  ख़याल, 
हृदय में बिछे  बंधुत्व  के ग़लीचे का, 
 क्यों  पनाह  दें   चापलूस  चूहों  को, 
क्यों कुतरने दे मख़मली एहसासों को, 
 क्यों उड़ने दे रंग अपनेपन का |

 - अनीता सैनी 

शुक्रवार, मई 17

देव दूत पूनम की छाँव



मृगमरीचिका  के  चिर   पथ पर, 
 सृष्टि  ने   किया  भावों  का  शृंगार |

कलपा   सृष्टि  ने  सूने  मन  को, 
 उपजी  उर  में  करूणा  अपार, 
 ममता  मन  में  मचल  उठी, 
दिया  मानव  को   रूप  साकार, 
करुण -काव्य   बहा  अंतरमन में, 
सृजा   सृष्टि  ने  मानवावतार |

शब्द-शब्द  का  सार  पढ़ा, 
गढ़ा  मन  का  उद्गार,  
पुलिकत  मन  के तार हुए, 
 मिटा हृदय  का  भार |

उर  से  उर  को  जोड़ती, 
 उर  के  कोमल  तार |

मानस  चोला   प्रीत  का, 
स्नेह ,करूणा  का गढ़ा  मोहक  दाँव, 
पहन  चोला  निखरा  मानव, 
 लगे   देव-दूत  पूनम  की  छाँव |

गर्वित   हृदय   सृष्टि   का, 
 मानव  मन  में  सुन्दर  संस्कार |

मानवता  की  निर्मल  महक, 
महका  सृष्टि  का  घर-द्वार, 
एक सूत्र  में  बँधा  मानव, 
सजा  उर  पर  मुक्ता-हार  |

पथ-पथ  पर  प्रीत  खिली,  
जीवन-मर्म  महका, 
उर  के  उस  पार |

- अनीता सैनी 

बुधवार, मई 15

प्रस्थान

                                             
प्रस्थान, 
यादों के गलियारे  में दौड़ते वक़्त का, 
दृश्य में अदृश्य भटकते भावों का, 
मौन में  मुखरित  हुए स्नेह का, 
हालात के ग़लीचे में दफ़्न ममता का |

प्रस्थान, 
भारी मन ,  रुँधे   कंठ  का, 
वक़्त के पड़ाव का  आँकलन,  
करने में  असमर्थ  साँसों   का,  
नम  आँखों में  दौड़ते परिदृश्य का |

प्रस्थान 
 जोहड़  से रूठे  तरु-तरूवर  का, 
सरिता तट पर  चहचहा   रहे परिंदों का 
कल-कल बहते झरना  का, 
  उलझे   स्वप्न,  मन में  उठे प्रश्न  का |

प्रस्थान, 
हैंगर  पर  टगे कुछ  रिश्तों  का,   
ज़रुरत के वक़्त  झाड़ने की मशक़्क़त  का, 
हवा में अपनेपन की नमी का, 
नमी में  भीनी-भीनी  महक से महके, 
समाज के एक  हिस्से   का,  
जहाँ  स्नेह के बीज, 
पल-पल अंकुरित हुआ करते थे|

             - अनीता सैनी 

मंगलवार, मई 14

पगडंडी


                                          
धूल-धूसरित मटमैली, 
  कृशकाय  असहाय पगडंडी |
  
 न  परखती  अपनों को, 
न  ग़ैरों   से  मुरझाती|

दर-ब-दर  सहती प्रकृति का  प्रकोप, 
भीनी-भीनी  महक से मन महकाती |

क़दमों को सुकूँ,  
जताती अपनेपन का एहसास |

तल्ख़  धूप  में, 
लुप्त हुई पगडंडी, 
रिश्ते   राह भटक गये |

  दिखा धरा को रूखापन, 
पगडंडी  दिलों  में खिंच  रही |

 थामे  अँगुली चलते थे कभी  साथ,   
वो  राह  बदल  रही |

निर्ममता  की  उपजी  घास, 
रिश्तों की चाल बदल रही |

 अपनों को राह दिखाती,  
वो डगर बदल  रही |

धरा से सिमट अब, 
 दिलों में खिंच  गयी, 
कृशकाय पगडंडी, 
जिस  पर दौड़ते रिश्ते, 
रिश्तों की चाल बदल रही  |

       - अनीता सैनी 

   





शनिवार, मई 11

माँ



अंतरमन में बहे करूणा,  
माँ , स्नेह का संसार, 
नि:शब्द भावों में झलके,  
माँ   मौन,  माँ मुखर  हृदय  का उद्गगार |


 आँखों  में   झलकें   स्नेह,  
माँ,   रण   में   हुँकार, 
आस्था  में  बैठा  विश्वास, 
माँ,  कर्म  पथ  का  विस्तार |


नाज़ुक  डोर  बँधे  जीवन  की,  
माँ,  जीवन  का  सार, 
क़दम  क़दम पर ढाल बनी, 
माँ , दो धारी तलवार |


नारी रूप नारायणी, 
माँ,  शक्ति का अवतार, 
मिथक  भ्रम  जग  ने  पाला, 
माँ,काली  के  एक  पाँव  का  संसार |


सृष्टि   का  कण-कण  दाता, 
माँ,  स्नेह   रूप   में   साकार, 
सुकूँ  की छाँव मिले  जीवन  में, 
 माँ,   ममता  की   बौछार |

- अनीता सैनी






गुरुवार, मई 9

गुलमोहर बन मुस्कुराये



   चटक धूप पिरोये  प्रेम, 
 पटक पात्र मायूसी  का,  
मुस्कुराये बन गुलमोहरी फूल, 
ग़मों ने छिटकी गर्मी, 
स्नेह के  अंबर तल पर बिखरी, 
 सौरभ की सुखमय धूल |

सुरसरी-सी शीतल लहरी, 
प्रज्ज्वलित दीप प्रीत, 
मधुर आँच में  प्रेम जला, विरह तीव्र मशाल, 
 खिला गुलमोहर यादों का प्रीत बनी  मनमीत |

अनंत पथ पर चले कर्म, 
जीवन जलती धूप, 
साथ तुम्हारा गुलमोहरी छाया, 
फूल यादों का रूप |

-अनीता सैनी 

मंगलवार, मई 7

उम्र


चली  समय  के  साथ, 
आँकलन साँसों  का करती जाओ,  
सूखा   नीर  नयनों का,  
मेरी  प्रीत जताती  जाओ |

उम्र, समय की दासी, 
साँझ-सी ढलती जाये,  
हाल पूछ  बुढ़ापे से, 
कर  याद  जवानी  रोये |

समझ  सहलाये  मन,  
बिंब यादों का उभर आया, 
वक़्त के घनघोर भँवर में, 
उम्र का एक पड़ाव नज़र आया |

तन के मन में झाँकी उम्र, 
स्वयं  में  धँसती  जाये, 
अंबर की घनघोर घटाएँ,  
धरा की बाँहों में सिमटी जायें |

ढहतीं  मीनारें इच्छाओं की, 
छाया उम्र की मिटती जाये, 
समय पथ पर चलती, 
उम्र तन से विमुख हो जाये, 

झाँकी  उस   पथ  की  यादें, 
समय के  तूफ़ान  से  घबराती थी,  
खंडहर तन की  थी  साथी, 
 उम्र  उस  पर  मुस्काती थी |

ओढ़  समय की चादर,  
अंकुर नया  खिलाया था, 
सिमटा  समय के हाथों, 
उम्र का तावीज़ पहन धरा पर आया था |

-अनीता सैनी 


रविवार, मई 5

दोहे



  दोहे
 ऊब गया संबंध से, मन में  बचा न  नेह|
लालच मन को भा रहा,ओझल हुआ सनेह||

घड़ी-घड़ी  तन तड़पता ,मन  से तन  का  बैर| 
मेहनत छाँव तलाशती, माँग रही है  ख़ैर||

राह  प्रेम की है कठिन ,जग से हुई न पार|
दौड़ रहे सब नींद में,लिये स्वप्न का भार||


अन-धन सब अर्जित करें,मिला न पल भर चैन|
त्राहि-त्राहि पुकार रहे, मन मानस बेचैन||

 मन में मोह  समा गया,स्वार्थ हृदय के द्वार |
जग से रूठा  प्रेम जब ,बढ़ा द्वेष का भार||

- अनीता सैनी 

शुक्रवार, मई 3

निष्ठा से ठन गई



आँखें गढ़ाये  बैठे , निष्ठा  से ठन गयी, 
हौसले का थामा  हाथ, मंज़िल से बात बन गयी |

साँसों  में  सुलगने का उस का इरादा न था,  
इस क़दर मिलेगी  राह  में  किया वादा न था|

लम्हा-दर-लम्हा  निभाई वफ़ा, 
लगा न कभी जिगर  से हुई  परायी |

नाक़ामी की उम्र क्या ,
मुठ्ठीभर रेत हवा के इंतज़ार  की बारी क्यों ?
मंज़िल राह तकेगी, निष्ठा से कालाबाजारी क्यों ?

छोटी-सी ज़िंदगी,
द्वेष का मन पर राज क्यों ?
प्रेम से जियेंगे,अहंकार की अधीन  क्यों ?

गुरूर से धड़कता सीना ,
स्वाभिमान से कलाकारी क्यों ?
आँखों में  तेज़ ,मायूसी की पहरेदारी क्यों  ?

मिलेगी  शौहरत, 
 बढ़ते क़दमों से यारी  क्यों ? 
निकलना हो सफ़र पर दूरी का आँकलन मज़बूरी क्यों ?

- अनीता सैनी 

गुरुवार, मई 2

क़दमों के निशां




प्रीत पद से बाँध, होठों पर सजा मुस्कान, 
वर्दी  सुर्ख़   लाल  पहन  लेना, 
भारत  माँ  से  किया   जो  वादा, 
मेरी   प्रीत   भुला  देना |

सो  चुका  जनमानस, 
निद्रा में  व्यवधान  न आने   देना, 
सीने  पर  लेना  हर ज़ख़्म, 
ज़ालिम  का  निशां  मिटा देना |

आह्वान करुँ  जनमानस से ,
हर  सैनिक को सीने से लगा लेना, 
माँ   के  स्नेह  को   तरसता, 
माँ  की  गोद  में  सुला  देना |

अहिंसा  का  पुजारी  मेरा  देश, 
शांति  का बिगुल   बजा देना, 
अंतरमन  से  उठी    चेतना, 
दबाकर  फिर  सुला  देना |

दिन, सप्ताह, और महीना, 
 कलेजे पर  फिर  निशान बना देना,  
 सूखा न आँख  का  पानी, 
    वीरांगना  को   तिरंगा  थमा  देना |

- अनीता सैनी 

बुधवार, मई 1

ब्लॉग पर एक साल



  आज ब्लॉग की दुनिया में क़दम रखे मेरा एक साल पूर्ण हुआ,  
सभी का स्नेह और सानिध्य मिला,
कहने को आभासी दुनिया पर दिल का रिश्ता सभी से जुड़ा  मिला |

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ख़ामोशियों संग अंतरमन से बातें करूँ, 
 सुनूँ   दिल  की  किसी से कुछ न कहूँ |

लोटे में बंद समुंदर  बन झाँक रही दुनिया,  
मुस्कुराये ये जहां मैं अदब से  देखती रहूँ |

 इसी  आदत ने  थमायी   हाथों में  क़लम, 
 सफ़र  अनजान   मैं  मुसाफ़िर बन रहूँ |

 काग़ज़,क़लम  संग  ज़िंदगी  मसि बन गयी, 
ख़ुशनुमा राह  लेखन  मैं डग भरती रहूँ  |

ब्लॉग जगत  में  गुज़रा एक साल 
जज़्बात  के समुंदर  में  बहती 
दुनिया को एक टक निहारती  रहूँ  |

स्नेह ,सम्मान का मिला भंडार 
बहन यशोदा का सानिध्य संजोती 
सखी श्वेता  के मार्गदर्शन में लिखती रहूँ |

कुसुम बहन ने ख़ूब सराहा
रेणु बहन ने दिया स्नेह
दुआ अनजानी दर्द हरती  रही 
रिश्ता प्रगाढ़ 
 मैं ब्लॉग संग सब की स्नेही बन रहूँ |

अँधेरी राह में  
आत्मविश्वास साथ चलने  लगा 
ख़ामोशियाँ  बातों  में  निमग्न 
तन्हाइयाँ    मुस्कुराने  लगी 
ज़िंदगी  भी अब कुछ बदल सी गयी 
मिले न मंज़िल इस सफ़र में मुसाफ़िर बन रहूँ |

--अनीता सैनी