शनिवार, जून 1

क़हर दिमाग़ ने ढा दिया



                                           
कृशकाय  पगडंडियों  पर  दौड़ते  गाँवों   को,  
 शहरों  की  सड़कें   निगल गयीं |

अपनेपन  की  ख़ुशबू   से  खिलखिलाती,  
गलियाँ  राह  शहर  की   भटक  गयीं|

 भूला    मिट्टी  की   ख़ुशबू ,
 शौहरत   की  महक दिल-ओ-दिमाग़  में  छा  गयीं  |

मासूम  दिल  पर  दिमाग़  ने  क़हर   ढा  दिया,  
छीन  पीपल  की  छाँव, फ़ुटपाथ  पर ज़िंदगी   सो  गयी |

 मालिकाना  हक़ का  रौब ,  मुस्कुराती  फ़सलें   छोड़ ,
बन  मज़दूर   मज़दूरी   को    मुहताज़, 
 वही   मेहनत   पगार  हाथों   में  थमा  गया |


कठघरे  में   जिंदगी, स्वाभिमान  की  पगड़ी  ले  गयी,  
दो  वक़्त  की  रोटी , नशे  का  व्यापारी  बना  गयी |


शब्दों   में   सुभाशीष,  हाथों  में   देश  का  भविष्य,   
बदली   शब्दों  की  लय,   लाचारी   सीने   से  लगा  गयी |


हुआ   घायल   मन ,  तन  ने   साथ   छोड़   दिया, 
नशे  ने   जकड़ा,    दीनता   हाथ   फैला   गयी |

सोई   मानवता  जाग  उठी,  धूम्रपान   से  तन  को  छुड़ा,  
इंसान   को   इंसानियत    का   पाठ   पढ़ा   गयी |

                      - अनीता सैनी

21 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत बहुत सुंदर रचना आज की आपाधापी में सभी नियामत खो रहा है इंसान और उलझता जा रहा है बस अंध दौड़ में पेट जो न करवा दे कम है और जिनके पेट भरे हैं लालच बैठी है सोच में।
    सामायिक चिंतन।

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    1. सस्नेह आभार प्रिय कुसुम दी जी
      सादर

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  2. बहुत ही बेहतरीन रचना सखी

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    1. तहे दिल से आभार प्रिय अनुराधा दी जी
      सादर स्नेह

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  3. उत्तर
    1. सस्नेह आभार प्रिय सखी सुधा जी
      सादर स्नेह

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  4. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (02 -06-2019) को "वाकयात कुछ ऐसे " (चर्चा अंक- 3354) पर भी होगी।

    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    आप भी सादर आमंत्रित है
    ....
    अनीता सैनी

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  5. कठघरे में जिंदगी, स्वाभिमान की पगड़ी ले गई
    दो वक़्त की रोटी , नशे का व्यापारी बना गई
    बेहद भावपूर्ण रचना सखी ,सही कहा आपने ये दिमाग का ही कहर हैं।

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    1. तहे दिल से आभार प्रिय सखी कामिनी जी
      सादर स्नेह

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  6. अनीता जी, कोई ग्रामीण जो सपना अपनी आँखों में संजोकर अपना गाँव छोड़ता है वह शहर में ठोकरें खाकर चूर-चूर हो जाता है. अभाव और निराशा के क्षण भुलाने के लिए वह नशे का आदी हो जाता है और फिर ख़ुद को मिटाने की राह पर चल पड़ता है. गाँव-गाँव की यही कहानी है.

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    1. तहे दिल से आभार सर, आप ने इतनी सुन्दर समीक्षा की
      आभार
      सादर

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  7. सहृदय आभार आदरणीय
    सादर

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  8. सुन्दर प्रस्तुति ,अपने और अपने परिवार के लिए दो वक़्त की रोटी का इंतजाम करने के लिए मनुष्य मजबूरी में ना जाने क्या -क्या नहीं कर जाता....भावपूर्ण स्थिति

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय रितु दी जी
      सादर स्नेह

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  9. भारत का बेटा किसान अनेक सुविधाओं के अभाव में यह त्रासदी झेलने के लिए विवश है ।इस रचना के मार्मिकता में कड़वा सच छिपा है।सार्थक रचना।
    सादर ।

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    1. तहे दिल से आभार प्रिय सखी
      सादर स्नेह

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  10. बन मज़दूर मज़दूरी को मुहताज़
    कड़वा सच छिपा है रचना में अनीता जी

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    1. तहे दिल से आभार आदरणीय भास्कर भाई, आप का सानिध्य यूँ ही बना रहे
      सादर स्नेह

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