थक गयी जब मैं,
शब्दों की बे-बाकी से,
ख़ामोशी की राह चुनी,
तय हुआ
चलने से पहले,
ख़ामोश रहूँगी
मरने से पहले,
कुछ सुनूँगी न कहूँगी
बस ठूँठ बन चलती रहूँगी,
सफ़र के हमसफ़र बने ,
कुछ एहसास ,
थकते-थकाते ,
रूठते-मनाते ,
डग साँसों की भरते,
जीवन के पड़ाव को ,
उस पार पहुँचाने का वादा किया,
अवाक रह गयी !
अवाक रह गयी !
जब एक जंगल में भटक गयी ,
रूह काँप गयी जब,
लुप्त हो चुके,
पुरुष-ज़ात के गिद्ध ,
न जाने कहाँ से ?
नारी ज़ात के लोथड़ों को नोंचते मिले !
कुछ सुडोल काय ,
कुछ हड्डियों के पिंजर,
क्षीण हो चुकी शक्ति,
साँसों से झूझते ,
अपने ही अस्तित्त्व की,
भीख माँगते मिले,
तप रहा तन,
काल की भट्ठी पर,
सिहर गयी जब वह,
ख़ामोशी से जलते मिले,
व्यवस्था के नाम पर
कुछ अवसरवादी कौवे,
कुछ अवसरवादी कौवे,
काँव-काँव करते,
आपस में झगड़ते मिले,
ख़ामोश रही क्योंकि
मैं सुरक्षित हूँ ?
उसी जंगल के एक कोने में,
अपनी ही साँसों की गिनती में,
परन्तु अब हर साँस ,
किसी के अधीन मिलीं !
- अनीता सैनी