थक गयी जब मैं,
शब्दों की बे-बाकी से,
ख़ामोशी की राह चुनी,
तय हुआ
चलने से पहले,
ख़ामोश रहूँगी
मरने से पहले,
कुछ सुनूँगी न कहूँगी
बस ठूँठ बन चलती रहूँगी,
सफ़र के हमसफ़र बने ,
कुछ एहसास ,
थकते-थकाते ,
रूठते-मनाते ,
डग साँसों की भरते,
जीवन के पड़ाव को ,
उस पार पहुँचाने का वादा किया,
अवाक रह गयी !
अवाक रह गयी !
जब एक जंगल में भटक गयी ,
रूह काँप गयी जब,
लुप्त हो चुके,
पुरुष-ज़ात के गिद्ध ,
न जाने कहाँ से ?
नारी ज़ात के लोथड़ों को नोंचते मिले !
कुछ सुडोल काय ,
कुछ हड्डियों के पिंजर,
क्षीण हो चुकी शक्ति,
साँसों से झूझते ,
अपने ही अस्तित्त्व की,
भीख माँगते मिले,
तप रहा तन,
काल की भट्ठी पर,
सिहर गयी जब वह,
ख़ामोशी से जलते मिले,
व्यवस्था के नाम पर
कुछ अवसरवादी कौवे,
कुछ अवसरवादी कौवे,
काँव-काँव करते,
आपस में झगड़ते मिले,
ख़ामोश रही क्योंकि
मैं सुरक्षित हूँ ?
उसी जंगल के एक कोने में,
अपनी ही साँसों की गिनती में,
परन्तु अब हर साँस ,
किसी के अधीन मिलीं !
- अनीता सैनी
वाह
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर
हटाएंSundar
जवाब देंहटाएंजी आभार
हटाएंनारी उत्पीड़न पर कठोर प्रहार करती प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार दी जी
हटाएंसादर
संचालिका रचना ।
जवाब देंहटाएंबुद्धिजीवी यों का कलेवर हिल जाएगा पर निराधम कर्ताओं तक बात कौन पहुंचाएगा?
शुक्रिया दी जी
हटाएंप्रणाम
संघातिक पढ़ें ,संचालिका को
जवाब देंहटाएंजी ज़रूर दी जी
हटाएंवााााह !
जवाब देंहटाएंबहुत ही सटीक एवं सराहनीय प्रस्तुति।
शुक्रिया बहना
हटाएंसादर
बेहतरीन रचना सखी
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार दी जी
हटाएंसादर
वाह!!प्रिय सखी ,बहुत ही मर्मस्पर्शी ....।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय सखी
हटाएंसादर
मार्मिक रचना !
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर
हटाएंसादर
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (02-08-2019) को "लेखक धनपत राय" (चर्चा अंक- 3415) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय चार्च मंच पर स्थान देने के लिए
हटाएंसादर
मार्मिक..
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय दी जी
हटाएंसादर
नारी उत्पीड़न पर सहज रोष की अभिव्यक्ति सराहनीय व प्रशंसनीय है। समाज को आईना दिखाती इस रचना के लिए शुभकामनाएं ।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
हटाएंप्रणाम
सादर
जब न्याय में विलम्ब होता है...तो न्याय का अर्थ नहीं रह जाता...ये रचना पूरी व्यवस्था के ध्वस्त होने की ओर इशारा करती है...वो समाज कभी उन्नति नहीं कर सकता जो नारी का सम्मान करना और करवाना न जानता हो...😢
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आप का
हटाएंसादर
बहुत बढ़िया
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर
हटाएंसादर
Marmik rachna
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आप का दी
हटाएंसादर
उत्कृष्ट सृजन
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रिय दी जी
हटाएंसादर
व्यवस्था के
जवाब देंहटाएंनाम पर कुछ कौवे,
काँव-काँव करते,
आपस में झगड़ते मिले |
बस ऐसे ही काँव-काँव कर के हम दोष दूसरे के सर मढ़े जा रहे हैं।
जी सही कहा सर
हटाएंसादर
नारी मन की कातरता भरे भावों को बखूबी बयां करती इस रचनाके लिए तुम्हे विशेष बधाई प्रिय अनिता | ये विवशताएँ नारी के हमकदम चलती हैं और उसे पग पग पर सोचने के लिए विवश करती हैं कि उसका दोष आखिर क्या है ? नारी होना अथवा पुरुष का देहलोलुप होना ? जिस धरा पर नारी के सर्वत्र पूजन का अमर उद्घोष गूंजता है वहां नारी मन की ये लाचारी किसी अभिशाप से कम नहीं | सस्नेह
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दी
हटाएंसादर
निःशब्द ...
जवाब देंहटाएंबहुत मार्मिक रचना ...
शुक्रिया सर
हटाएंसादर