जब से अपने देश में, आया पूँजीवाद।
कहर काल का पड़ गया, निर्धन है लाचार।।
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खेतीहर अब रो रहा, पसरा अत्याचार।
धनपतियों के साथ में, देश हुआ लाचार।।
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खेतीहर अब मल रहा, अपने खाली हाथ।
लाचारी को लाँघता, ढूँढे सुख का साथ।।
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चौमासे की झड़ी में, खिले चमन में फूल।
पानी-पानी सब जगह, उड़े कहाँ से धूल।।
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अपना भारत देश है, सभी तरह समृद्ध।
अब भी है परिवार के, मुखिया सारे वृद्ध।।
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होता है विज्ञान का, कुदरत से जब मेल।
सुख से सारे लोग तब, खेलें अपना खेल।।
- अनीता सैनी
सुन्दर और सामयिक दोहे
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
हटाएंसादर
बहुत सुंदर ! सार्थक दोहे हुत शानदार सृजन।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार दी जी
हटाएंसादर
सार्थक दोहे
जवाब देंहटाएंशुक्रिया सर
हटाएंसादर
सार्थक सामयिक दोहे।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया दी जी
हटाएंसादर
वाह!!,सखी ,बहुत सुंदर और सार्थक दोहे ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बहना
हटाएंसादर स्नेह
उत्कृष्ट भावों को समेटे बहुत सुन्दर दोहे ।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया प्रिय दी जी
हटाएंसादर स्नेह
वर्तमान की स्तिथि का सजीव चित्रण,
जवाब देंहटाएंसादर
शुक्रिया सर
हटाएंसादर
बहुत सुंदर और सार्थक दोहे सखी
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय सखी
हटाएंसादर
बहुत बढ़िया और प्रासंगिक।
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
हटाएंप्रणाम
सादर
लाजवाब दोहे...
जवाब देंहटाएंवाह!!!
सस्नेह आभार दी जी
हटाएंप्रणाम
सादर
जीवन के अलग अलग रंगों को परिभाषित करते भावपूर्ण दोहे प्रिय अनीता, जो तुम्हारे लेखन की विशिष्ठ पहचान हैं । हार्दिक बधाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया दी जी
हटाएंसादर स्नेह