प्रति पल आँखें चुराती हूँ,
संयोग देखो ! उसका,
सामने आ ही जाती है,
कभी पायदान के नीचे,
जूतों की मिट्टी में,
कभी उन जूतों में जो पिछले दो महीने से,
किसी के पैरों का इंतज़ार कर रहे हैं,
उस वर्दी में जो बेड के किसी कोने में,
दबी अपनी घुटन जता रही है,
उसके लाखों सवालों में,
जो मेरी नाक़ामयाबी पर,
कभी कंठ से बाहर ही नहीं निकले,
कभी-कभी छलक जाती है वह,
बच्चों में,उनके मासूम सवालों में,
उनकी उस ख़ुशी में जो,
वे संकोचवश छिपा लेते हैं,
फिर कभी मुस्कुराने के वादे के साथ,
कभी झलकती है एहसास के गुँचे में,
जो थमा गये थे वह मेरे हाथों में,
आज फिर मिली मुझे झाड़ू के नीचे,
चीटियों के एक झुण्ड में,
जो एक लय में चल रहीं थीं ,
न सवाल न जवाब बस,
मूक -पथिक-सी चल रही थी,
कविता मुझे नहीं,
मैं कविता को जीती हूँ,
कविता स्वयं की पीड़ा नहीं,
मानव की पर-पीड़ा है,
मानव की पर-पीड़ा है,
स्वयं की पीड़ा को परास्तकर,
पर-पीड़ा को हृदय पटल पर रखना,
मर्म का वह मोहक मक़ाम है,
जो सभी के भाग्य में नहीं होता,
जो सभी के भाग्य में नहीं होता,
चरमराती है अंतरचेतना में वह,
जब एक मज़दूर के हाथ,
छोड़ देते हैं उस का साथ,
पटक देता है वह पत्थरों से भरा तसला ,
पटक देता है वह पत्थरों से भरा तसला ,
झुँझला उठता है देख भाग्यविधाता का ठेला,
तब जी उठती हूँ मैं,
एक और कविता उसी के केनवास पर,
उसी के असीम दर्द के साथ |
# अनीता सैनी
तब जी उठती हूँ मैं,
एक और कविता उसी के केनवास पर,
उसी के असीम दर्द के साथ |
# अनीता सैनी