नवाज़ा स्नेह से मुझे
पिता पर्वत ने दिया
पत्थर-सा कठोर हृदय
विचलित नहीं होती मैं
कभी मन की तृष्णा से
सुख-सुविधा से परे
वादियों में बुनती हूँ
सम्पूर्ण जीवन का सार।
कलुषित चित्त की चीत्कार
कुपित करती है मानव मन को
सुख-सुविधा का दिखा संगसार
मेरे आधिपत्य की करता दरकार
औचित्य अपना गवा नादान
पर्वत-पुत्री के वैभव की करता पुकार।
अब उर में उमड़ते उस के
पुरसुकून के प्यारे बादल
जहाँ उड़ती हूँ मैं भी
जब होती है चाह प्रबल
चाँद-तारों की गोद में बैठकर
सुनती हूँ प्यारी सरगम
जहाँ आशंका का होता न कोई संगसार ।
# अनीता सैनी
बेहतरीन रचना सखी
जवाब देंहटाएंशुक्रिया बहना
हटाएंसादर