रेत के मरुस्थल-सा,
हृदय पर होता विस्तार,
खो जाती है जिसमें,
स्नेह की कृश-धार,
दरक जाती है,
इंसानियत,
बंजर होते हैं,
चित्त के भाव,
जज़्बात में नमी,
एहसास में होती,
अपनेपन की कमी,
तब दरारों से,
झाँकने लगता है दर्द,
असीम पीड़ा,
अपनों की रुसवाई,
और अंतहीन तन्हाई में,
कठोर चित्त के धरातल पर,
बिखर जाता है,
मर्म वफ़ाई का,
अश्रु बन लुढ़कती है,
पावन प्रीत,
अंत:सलिला की गहराई में,
कुरेदने से मिलते हैं,
अपार स्नेह नीर के स्रोत
पनपती है,
अनदेखी अनकही,
बँधुत्व की पीर,
अंत:सलिला-सा है,
चंचल चित्त,
फिर भी रौंदते हैं,
प्रतिपल स्वार्थ में,
अनगिनत पथरीले पैर,
वक़्त की उड़ती धूल से,
फिर भर उठते हैं,
वे रिसते हुये घाव,
निरीह और उदार |
# अनीता सैनी
वाह ! बहुत ख़ूब !
जवाब देंहटाएंकमाल की रचना. हमारे भीतर बहती भावों की नदी अर्थात अन्तःसलिला का ख़ूबसूरत ज़िक्र करती रचना विश्व बंधुत्व का विराट दर्शन प्रस्तुत करती है.
बधाई एवं षुभकामनाएँ.
लिखते रहिए.
षुभकामनाएँ=शुभकामनाएँ
हटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर
हटाएंसादर
सिक्के के दूसरे पहलू को उम्दा उकेरा गया
जवाब देंहटाएंशुभकामनाएं
तहे दिल से आभार दी जी
हटाएंप्रणाम
सादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (26-08-2019) को "ढाल दो साँचे में लोहा है गरम" (चर्चा अंक- 3439) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय
हटाएंसादर
बेहतरीन और लाजवाब सृजनात्मकता अनु । बहुत सुन्दर ।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार दी
हटाएंसादर
बेहद खूबसूरत रचना प्रिय सखी
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार दी
हटाएंप्रणाम
मनमोहक शीर्षक को सार्थक करती रचना प्रिय अनीता, जो मन की हर विसंगति को दरकिनार कर अनुराग की गहन कामना भित्र संजोये है। बहुत प्यारी है भावों की ये अंतःसलिला!!!! 👌👌👌👌👌👌
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार दी जी
हटाएंसादर
रेत के मरुस्थल-सा,
जवाब देंहटाएंहृदय पर होता विस्तार,
खो जाती है जिसमें,
स्नेह की कृश-धार,
ik aaah....
hmm..bahut hi saarthak rchnaa bni he\
bdhaayi swikaare
बहुत बहुत शुक्रिया बहना
हटाएंसादर
अन्तः करण को उद्वेलित करती ... सरल सरिता बहती विराट सागर में विलीन होते भाव ... बहुत सुन्दर ...
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार आदरणीय
हटाएंसादर
ये अंत:सलिला के अपार स्नेह नीर के स्रोत छुपे हैं कहीं तुझ में, मुझ में, हम सभी में। बस उसे आवरण से निकालने का दायित्व या तो समय के पास है या फिर परिस्थितियों की चोट उसे मुखरित करती है।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर भावपूर्ण काव्य, सुंदर शब्द संयोजन जो भावों को स्पष्ट करने में पूर्ण समर्थ ।
वाह रचना।
तहे दिल से आभार दी जी
हटाएंसादर
अंतःसलिला यह शब्द ही स्वयं में अर्थ से परिपूर्ण है।
जवाब देंहटाएंअंतर्मन के भावों के कोमल उद्गार व्यक्त करती बहचत सुंदर अभिव्यक्ति अनु।
तहे दिल से आभार दी जी
जवाब देंहटाएंसादर
फिर भी रौंदते हैं,
जवाब देंहटाएंप्रतिपल स्वार्थ में,
अनगिनत पत्थरीले पैर,
वक़्त की उड़ती धूल से,
फिर भर उठते हैं,
वे रिसते हुये घाव,
bahutttt hi gehrii rchnaaa....hmmm
bdhayi ik sarthak rchna rchne ke liye..
aur ik khaas bat...aapne jis tasweer ka chayan kiyaa he..ye mere ghar ke bahut paas he...Canola ke khet ..Husser area me...:)..bahut h manmohak hote hain
सस्नेह आभार सखी
हटाएंसादर
सुंदर मनोभावों से सजी एक बेहतरीन रचना 👌 👌 बधाई हो 💐
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार बहना
हटाएंसादर
सत्य की परख कराती सुन्दर रचना। स्वार्थ की चक्की में रिश्तों और अपनेपन का पिस जाना अत्यंत ही दुखद और असह्य होता है। अन्तः धारा फूट पड़ती है डूब जाता है मन क्षोभ की झील में ।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुभकामनाएँ ।
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय उत्साहवर्धन समीक्षा हेतु
हटाएंप्रणाम
सादर