गुज़र चुका कल
आने वाले कल में
अपना प्रतिबिम्ब तलाशते हुए
अपने आपको
वक़्त के साथ
इतिहास के रुप में फिर दोहराता है |
इन्हीं शब्दों का पुनर्दोहराव
अंतरमन में क्षोभ का
उत्पात उत्पन्न करता है |
पृथ्वी के परिक्रमण की तरह कहूँ
या परिभ्रमण की तरह उलझी
नारी चित्त में
असीम लालसा की ललक
धड़कनों में धड़कती रहती है |
क्या नारी स्वयंअपनी पीड़ा
का प्रचंड रुप गढ़ रही है ?
वर्तमान का बदलता परिवेश
क्या फिर इतिहास
दोहराएगा ?
वक़्त का रिसता नासूर
क्या फिर कोढ़ में तब्दील हो
नारी को तिरस्कृत करेगा ?
मानवीय मूल्यों का
प्रेम के रुप में होता पतन
क्या नारी वैदिक युग को
अनचाहा आमंत्रण प्रदान कर
फिर उसी कगार पर
अपने भविष्य को
प्रताड़ित करती मिलेगी |
प्रलय की हो रही
प्रेमपूर्वक आहट
क्यों नहीं सुन पा रही
वर्तमान की नारी ?
क्यों अपने आज को बुनने
में हुई है मगरूर ?
प्रति पल सुख से जीने की चाह में
प्रेम का लबादा ओढ़कर
दमित इच्छाओं को हवा देकर
स्वेच्छाचारिता की नवीन राहें तलाशती नारी
जीवन के अमृत-घट में
ज़हर की बूँदें क्यों डाल रही है ?
संस्कार रूपी गहना
क्यों लगा ज़हन को भारी
भविष्य के हाथों में थमा रही
वक़्त की लाचारी |
अनीता सैनी
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (09-08-2019) को "रिसता नासूर" (चर्चा अंक- 3422) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय चर्चा मंच पर स्थान देने के लिए
हटाएंसादर
Bahut achhi kabita hai.
जवाब देंहटाएंThanks sir
हटाएंजी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ९ अगस्त २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सस्नेह आभार आदरणीया पाँच लिंकों के आनंद पर स्थान देने के लिए |
हटाएंसादर
बहुत सुंदर भावाभिव्यक्ति, अनिता दी।
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार बहना
हटाएंसादर
जीवन के अमृत-घट में
जवाब देंहटाएंज़हर की बूँदें क्यों डाल रही है ?
संस्कार रूपी गहना
क्यों लगा ज़हन को भारी
भविष्य के हाथों में थमा रही
वक़्त की लाचारी |... बेहतरीन रचना सखी 👌
सस्नेह आभार सखी
हटाएंसादर
बहुत सुंदर कविता।
जवाब देंहटाएंशुक्रिया पम्मी जी
हटाएंसादर
प्रति पल सुख से जीने की चाह में
जवाब देंहटाएंप्रेम का लबादा ओढ़कर
दमित इच्छाओं को हवा देकर
स्वेच्छाचारिता की नवीन राहें तलाशती नारी
जीवन के अमृत-घट में
ज़हर की बूँदें क्यों डाल रही है ?
सटीक अभिव्यक्ति....गहन चिन्तनीय...
अपने संस्कार और मानवीय मूल्यों का पतन कर अपने को आधुनिक मानना बड़ी भूल साबित होगी नारि के लिए...
बहुत ही लाजवाब रचना...
तहे दिल से आभार दी जी रचना की गहराई और सार्थकता को अपने अनमोल शब्दों से नवाज़ने के लिए
हटाएंसादर
सार्थक रचना
जवाब देंहटाएंशुक्रिया आप का
हटाएंसादर
very nice dear...
जवाब देंहटाएंThanks dear
हटाएंसमानता और आजादी की चाह कब स्वेछाचारिता में बदलती गई ,कब महत्त्वाकांक्षाओं ने नैतिक मूल्यों को नेस्तनाबूद कर दिया अब आत्माभिमान अभिमान में बदल गया अब उन्नति पतनोन्मुखी हो गई ,और नारी अपने संस्कार खोती गई।
जवाब देंहटाएंसही विचारोत्तेजक रचना, चिंतन परक, सार्थक, मुझे लग रहा है मेरे विचार आपने लिखा दिये ।
साधुवाद यथार्थ को अभिव्यक्ति देने के लिए।
तहे दिल से आभार कुसुम दी जी |आप की समीक्षा असीम आशीर्वाद के रुप में मुझे सहारा देती है |मुझे अपने विचार पर फिर विचार न करने,सुकून की साँस प्रदान करती है |
हटाएंआप का सानिध्य यूँ ही बना रहे |
आभार
सादर