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सोमवार, सितंबर 30

जलमग्न हुए आशियाने



कहाँ से आये ये  काले बादल,  
किसने गुनाह की गुहार लगायी,  
जलमग्न हुए आशियाने, 
ज़िंदगियों ने चीख़-चीख़कर पुकार लगायी |

बरस रही क्यों घटा अधीर, 
विहग गान से क्यों मेघ ने काली बदरी बरसायी, 
चिर पथिक थे गाँव के वे  ग्वाले, 
क्यों उनको  भ्रम से भटकी राह दिखायी |

मूक-बधिर बने बेबस दर्द सारे, 
देख-सुन अरदास मन में झिरमिरायी, 
पथरा  गयी  पलकें ओ पालनहार !
क्यों प्रशासन ने सुध-बुद्ध गँवायी |

मनुहार माँगती गूँजती प्राण-वंशी, 
थक-हार दीप असुवन से जला, 
पल ने पलकों में उम्मीद थमायी, 
कहा विहंगम ने मधुर स्वप्न में यामिनी से, 
उफनती  सजल सरिता को सवेरे ने राह दिखायी |

© अनीता सैनी 

शुक्रवार, सितंबर 27

सुर-सरगम सजा साँसों में

  

  क़ुदरत का कोमल कलेवर कण-कण में हुआ स्पंदित,   
 लहराई लताएँ धरा के उपवन में मायूस मन हुआ सुरभित |

   रिदम धड़कनों में  प्रति पहर  खनकी ,  
 राग-अनुराग का एहसास है ऐसा, 
सुर-सरगम सजा साँसों में संगीत अधरों पर,  
 शब्द-भावों ने पहना लिबास वीणा की धुन के जैसा |

 सृष्टि ने  सजोया  सात सुरों में सुन्दर जीवन,
 सुर साज़-सा सजे  जीवन-संगीत आजीवन |

संयोग-वियोग के भँवर में गूँथी रागिनी, 
राग भैरव-भैरवी प्रभात को मुखरकर जाती,  
 चंचल चित्त की चीत्कार अधरों ने थामी,  
पसीजती राग मेघमल्हण बदरी बरसाती  |

 अहर्निश पहर-दर-पहर सुरम्य संगीत मल्हाता,   
प्रकृति का कण-कण सुर में मधुर संगीत है गाता  |

© अनीता सैनी  

गुरुवार, सितंबर 26

पूँजीवाद का बीजारोपण राष्ट्रहित में है ?




वे मर रहें हैं, 
अपनी ही लाचारी से, 
प्रतिदिन लाखों की तादाद में, 
 कहीं कोई नामोनिशान नहीं !
कुछ मारे भी जाते हैं,  
बेबसी के हाथों, 
 रुतबे की निगाहों से, 
शब्दभेदी-बाण से, 
किन्तु कहीं ख़ून के धब्बे नहीं !
सभ्यता माँगती है, 
त्याग व क़ुर्बानी परिवर्तन के लिये, 
मैंने अपने आप से कहा |

 तुम जानती हो !
 पूँजीवाद का बीजारोपण
राष्ट्रहित में  है ? 
ज्ञानीजनों की है यही ललकार |
धनकुबेर जताते हैं, 
अपने आप को बरगद, 
उसकी छाँव में, 
पनपता है, 
 शोषण का चिरकालीन चक्रव्यूह, 
वे जताते हैं कि वे देते हैं पोषण,  
  कुपोषित पौध को, 
  कमजोर-वर्ग-मध्यम-वर्ग को, 
यही वृक्ष प्रदान करता है ख़ुराक़, 
किसी भले मानस ने कहा था मुझे,  
मैंने फिर अपने आपसे कहा |

हम स्वतंत्र हैं !
क्या यह जनतंत्र है ?
अधीन है, 
 एक विचारधारा के, 
 कुंठा के कसैलेपन का कोहराम मचा है, 
 अंतःस्थ में, 
कुपोषित हो गये, 
 हमारे आचार-विचार,संवेदनाएँ-सरोकार, 
अमरबेल-सा गूँथा है हवा में जाल, 
 नमी,पोषक तत्त्व का नित्य करते हैं, 
वे सेवन, 
   देखो ! पालनकर्ता हुए न वे हमारे, 
और मैंने फिर अपने आप से कहा !

© अनीता सैनी 

मंगलवार, सितंबर 24

यायावर-सा जीवन तुम्हारा




असबाब लादे रौबीले तन पर, 
यायावर मुस्कुराहट को मात दे गया,
सजा सितारे शान से सीने  पर,    
सपनों का सौदागर सादगी में सिमटता-सा गया |

  आसमां की छत्रछाया उसका मन मोह गयी,   
 देह को उसकी मटमैला लिबास भा गया,  
नींद कब कोमल बिछौना माँगती है,   
यह सोच वह धरा के आँचल में लिपटता-सा गया |

अहर्निश उड़ान को आतुर  हृदय, 
परिंदों के डैंनों-सी उल्लासित बाहों में, 
 गर्बिला जोश उफनता-सा गया, 
 जुगनू-सी चमकती उम्मीद नयन में, 
  पथराये दुःख की तरह क़ाबिज़ उनकी आँखों में न था, 
 क़दम-दर-क़दम उल्लासित मन सफ़र मापता-सा गया |

परवाह में बेपरवाह-सी सजी ज़िंदगी, 
देख वैराग्य का कलेजा पसीज-सा  गया, 
पड़ाव आँखों में उभर आया तुम्हारा, 
यह देख ठिकाना हमारा ठिठुरता-सा  गया |

नसीब के पत्ते बहुत फड़फड़ाये, 
ठाँव और गाँव बाँध न पाये पाँव तुम्हारे, 
यह देख वक़्त अँजुली से हमारे रिसता-सा गया, 
समय के रथ पर हो सवार, 
यायावर-सा जीवन तुम्हारा, 
राह नापने में आहिस्ता-आहिस्ता गुज़रता-सा गया |

- अनीता सैनी 

शुक्रवार, सितंबर 20

ऐसा नहीं वक़्त सज्दे में झुका था




घटाओं के बदले तेवर,  
वे  तोहमत हवाओं पर लगाती थीं, 
दुहरा आसमां  झुका नहीं जज़्बातों से,   
वक़्त ने वक़्त से धोखा किया,वक़्त सज्दे में नहीं था |

गिरोह बना रहे  विश्व पटल पर, 
बादलों को बाँटने का वो दस्तूर  पुराना  था, 
संघर्ष के पड़ाव पर सूख जाती है विचारों की नमी, 
लम्हात को पता था वो भविष्य के दरिया में गहरा उतरा था |

आहट से बेख़बर वो बरबस मुस्कुराता बहुत था, 
कब किस राह से गुज़रेगा साँसों का कारवाँ,वो तारों से पूछता था,  
बेख़बर था वो देख जमघट काफ़िरों का, 
बुन रहा जाल ज़ालिमों के ज़लज़ले से,दोष उसी लम्हे का था |

हाहाकार हसरतों का सुना,बादलों के उसी दयार  में, 
 इंसानों के जंगल में भटके विचारों को हाँक रहा समय था, 
गूंगे-बहरों  की भगदड़ में फ़ाक़े बिताकर मर गया वह, 
ऐसा नहीं सज्दे में झुका था,जाने जलसा कब हुआ था ?

- अनीता सैनी 

गुरुवार, सितंबर 19

करुण पुकार कावेरी की



 सदानीरा नदी कावेरी,  
कर्नाटक, उतरी तमिलनाडु में बहती, 
पश्चिमी घाट के पावन पर्वत ब्रह्मगिरी से उपजी,  
दक्षिण पूर्व में प्रबल प्रवाह प्रेम का प्रवाहित कर, 
 बंगाल की खाड़ी में जा मिली |

कुछ दर्द वक़्त का यूँ निखरा, 
साँसों पर आधिपत्य,तन के टुकड़े तीन मिले,  
क्षीण हो रही शक्ति प्रवाह की, 
अधर राह में छूटे प्राण,खाड़ी की राह ताकते मिले,  
सिमसा, हिमावती, भवानी सहायक सफ़र में, 
 विमुख हो दक्षिण की गंगा से रुठी  मिली |

प्रति पल तिरुचिरापल्ली बाट जोहता रहा राह में, 
उमड़ा समर्पण हृदय में, नहीं नीर आँचल में मेरे, 
डेल्टा के डाँवाडोल अस्तित्त्व पर, 
 आधिपत्य विनाशलीला का, 
अन्नदाता का हृदय अब हारा,कावेरी को पुकारता मिला, 
तीन पहर का खाना,वर्ष की तीन फ़सलों से नवाज़ा, 
नसीब रूठा अब उनका,जर्जर काया है मेरी, 
 एक वर्ष की एक फ़सल में सिमटी मेहनत उनकी, 
एक पहर की रोटी में बदली, 
   सीरत व सूरत और  दिशा व दशा  मेरी, 
लिजलिजी विचारधारा के अधीन सिमटी मिली |

होगेनक्कल,भारचुक्की,बालमुरि जलप्रपात के पात्र सूखे, 
झीलों की नगरी का जल भी रूठा, 
आँचल फैलाये अपना अस्तित्त्व माँग रही मानव से,  
चंद सिक्कों का दान समझ मानव दायित्व दामन का, 
मैं दर्द दर-ब-दर ढ़ो रही,  
बहे पवन-सा पानी आँचल में मेरे,  
चित्त में यह भाव,हाथों में विश्वास की डोर थामे खड़ी,  
जज़्बे पर तुम्हारे,नयनों में उम्मीद की छाया मिली |

- अनीता सैनी 

मंगलवार, सितंबर 17

एक नज़्म तुम्हारी तस्वीर के पीछे



अनवरत तलाशती है वह,
वक़्त के झरोखे से मन की अथाह गहराई में,
मोती-सी अनमोल,मन-सी मासूम,
 बेबाकपन में डूबी एक ख़ूबसूरत-सी नज़्म |

जिस्म से सिमटी वक़्त की तह,
हर तह  को पलट फिर सहेजती है वह, 
किसी में छिप जाती है किसी को छिपा देती है,
तलाशती है मोती-सी अनमोल,मन-सी मासूम,
 बेबाकपन में डूबी एक ख़ूबसूरत-सी नज़्म |

तैतीस साल से उफ़न रहा साँसों का सैलाब, 
उसी सैलाब में उतर लावण्यता में छिपी बैठी है,
 अधमरी कुछ बाहर आने को लालायित तड़पती है,
 मोती-सी अनमोल,मन-सी मासूम,
 बेबाकपन में डूबी एक ख़ूबसूरत-सी नज़्म |

कुरेदती है  अपने ही नासूर को आह में टटोलती है, 
थक हार फिर निराशा में सिमटती है तब अनायास ही,
रिसने लगती है धीरे-धीरे तलाश के पूर्ण कगार पर, 
मोती-सी अनमोल,मन-सी मासूम ,
 बेबाकपन में डूबी एक ख़ूबसूरत-सी नज़्म |

हृदय से करती है साझा समझौता,
 एक नज़्म थमा देती है उसे,
एक नज़्म  फिर लपेटती  है,
 वक़्त के उसी थान में वक़्त के लिये,
एक छिपाती  है  तुम्हारी  तस्वीर के पीछे,
अपनी ही परछाई में समेट तुम्हारे  लिये,
 मोती-सी अनमोल,मन-सी मासूम,
 बेबाकपन में डूबी एक ख़ूबसूरत-सी नज़्म |

#अनीता सैनी 

परछाइयों से कोई वास्ता नहीं


टाँग देते  हैं हम,  
समय में सिमटी साँसें, 
ज़िंदगी की अलगनी पर,  
कुछ बिन गूँथे ख़्वाब ख़्वाहिशों में सिमटे,   
वहीं तोड़ देते हैं दम, 
कुछ झुलस जाते हैं वक़्त की धूप से, 
कुछ रौंद देते हैं हम जाने-अंजाने में अपने ही क़दमों से|

कुछ अरमान पनप जाते हैं रोहिड़े-से, 
चिलचिलाती धूप में पानी के अभाव में भी, 
स्नेह सानिध्य की हल्की नमी से, 
मुखर हो उठते हैं उसके  रक्ताभ-नारंगी सुन्दर फूल, 
 एहसास की छाँव में आत्मविश्वास के,  
 मोहक पुष्प लिबास ख़ुशियों का ओढ़े,  
वक़्त-बे-वक़्त बेसब्र  हो उठती  है 
उनकी  मन मोहनी मादक  महक |

झरोखे से आशियाने में, 
प्रभात की प्रथम किरण के साथ, 
प्रवेश को आतुर हो उठता  है, 
कल्पनाओं का नैसर्गिक चित्रण, 
समाहित होती है उनमें एक प्रति परछाई,  
कुछ जानी-पहचानी अपनी-सी,  
 जिसे आँखें गढ़ने लगती  हैं,  
अपने ही आकार में,  
सम्मुख हो उठता है, 
वह वक़्त जब हम होते हैं राग-द्वेष में,   
मसल देते हैं, 
अपने ही हाथों से ख़ूबसूरत लम्हात, 
नन्ही कली-से नाज़ुक जज़्बात |

धूप से बनी दीवारों पर, 
अनगिनत परछाइयों से कोई रिश्ता नहीं, 
फिर भी न जाने क्यों, 
उनके चले जाने से दर्द उभर आता है, 
वे जीवित होती हैं कहीं अपने ही ब्रह्माण्ड में, 
 दिल धड़कता है उनका भी, 
उनकी साँसें भी पिरोती हैं ख़ूबसूरत स्वप्न, 
वे पाकीज़ा आँखें भी तलाशती हैं, 
प्रकृति का अनछुआ अकल्पित निर्मल प्रेम, 
न जाने क्यों वे ओझल हो जाती हैं, 
समेटे अपना सात्विक अस्तित्त्व अपनी ही 
जीवन रेखा की अलगनी पर, 
और उभर आती है, 
एक और परछाई हृदय की दीवार पर, 
 जिससे कोई वास्ता नहीं,
फिर भी वह अपनी-सी नज़र आती है |


- अनीता सैनी 

सोमवार, सितंबर 16

अमृता एक औषधि




भटक  रही दर बदर  देखो !
 स्नेह  भाव  से  बोल  रही, 
 अमृत  पात्र  लिये  हाथों  में,
सृष्टि, चौखट-चौखट  डोल  रही|

विशिष्ट औषधि, जीवनदात्री,
सर्वगुणों  का  शृंगार    किये 
अमृता   कहो   या  गिलोय, 
संजीवनी  का  अवतार  लिये  |

आयुर्वेद  ने  अर्जित  की,
अमूल्य  औषधि  पुराणों  से,
महका, मानव  उपवन  अपना,
अमृता  की  झंकारों  से |

चेत  मानव  चित्त  को  अपने ,
न  खेल बच्चों की  किलकारी से,
हाथ में औषधि लिये खड़ी,
प्रकृति  जीवन पथ की पहरेदारी  में  |

- अनीता सैनी 

शुक्रवार, सितंबर 13

मातृत्व का मरहम है हिंदी




हिंद देश की हिंदी के मासूम मर्म का ग़ुबार, 
मानव मस्तिष्क सह न सका, 
क़दम-दर-क़दम धँसाता गया शब्दों को,  
बिखर गये भाव पैर पाताल को छूने-से लगे |

 अस्तित्त्व आहत हुआ हिंदी का, 
आह से आहतीत बिखरती-सी गयी, 
प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष  शब्दार्थ,  
शब्दों की क्लिष्टता में उलझी, 
सकुंचित हो  सिमटती-सी गयी |

पेड़ों के झुरमुट में सजाया उसने,  
अलबेले कोहरे से आशियाना आकाँक्षा का, 
हल्की धूप उमड़ी आकर्षक अंग्रेज़ी की, 
अनचाहा आवरण गढ़ हिंदी को ओझल-सी कर गयी |

सीप-सी तलब तलाशती  हिंदी हृदय में, 
स्वाति नक्षत्र में बरसती बूंदों-सा, 
इंतज़ार अधरों को रहा अनकहा, 
अनकहे शब्दों में तब्दील होती गयी, 
अंतस के सुशोभित भावों  में भटकी , 
  अथाह प्रेम काल का निगल-सा गया, 
सम्पूर्ण समर्पण का ग़ुबार लिये वक़्त, 
वक़्त-दर-वक़्त सह न सका, 
सवाल बनी  न जवाब मिला, 
समर्पण के भाव में  बिखरती-सी गयी |

मातृत्व का मरहम है  हिंदी अब, 
अंग्रेज़ी का टेस्टी टॉनिक बन गया, 
अथाह प्रेम शब्दों में भाव पवित्र  उसके, 
अंतरमन में ही उलझ-सी  गयी, 
संस्कृत, हिंदी का बदलता स्वरुप, 
उसी के शब्दों में सिमटता-सा गया |

       # अनीता सैनी

बुधवार, सितंबर 11

शतदल-सा संसार सलोना


                                     


हारे नहीं, 
हौंसले अर्थ-व्यवस्था के,    
प्रति पल  हुँकार भरेंगे,
 वे सजग हो  भारी,
 शतदल के सुनहरे दल बनकर, 
 उभरेंगे शक्तिपुंज से, 
जिस हाथ होगा हथौड़ा, 
जिनके हल चलेंगे , 
उसी पेट को रोटी मिलेंगी,  
उन्हीं खेतों में फल मिलेंगे,  
बरसेंगीं ख़ुशियाँ उसी आँगन में, 
 पेड़ हरे होंगे उसी बाग़ के, 
उसी के कर्म कुंदन बनेंगे, 
 उसी माथे पर बल उभरेंगे,
वक़्त के तराज़ू में, 
 समता के दृग दोनों तुलेंगे, 
तभी तपता गगन सुख-समृद्धि के, 
घन से घिरेगा |
सुंदर सुमन सुरसरी-सा होगा, 
 संसार सलोना,   
सहज सुलभ सफल होंगे,   
सब काज,  
 ऐसे  साज़ सजेंगे पथ पर, 
न तपेगा तन मन की तेज़ तपिश से, 
 सहेजेंगे  सानिध्य  सफ़र में, 
 ऐसे  सनातन जीवनसाथी होंगे,   
फ़ज़ा में न होगी वाक-भ्रान्ति,
 कर्म पर तभी गिरेगी प्रीत की गाज, 
बन्धुत्त्व की कोंपलों की बनेंगी कलंगी ,  
मानस  मुकुट सुमन-सा सुन्दर, 
 सजेगा  सीस पर,
  उन्हीं पौधों पर  प्रीत का,  
रस  झरेगा |
शतदल-सा होगा,  
संसार सलोना, 
हिम-गिरि-सा होगा, 
शीतल शाँत चित्त,  
पनपेगी  प्रीत पग-पग पर,  
हो जैसे जूही की कली खिली, 
भूतल पर न होगी  तक़रार,  
गगन के नयनों में न नमी बढ़ेगी ,  
 भाव बहेंगे पत्तों-सी पतवार पर, 
मुग्ध होगी, 
 मधुर धुन में  मानवता सारी, 
प्रयास प्रति पल महकेंगे, 
 पवन के झोंकों से, 
तब मुस्कुरायेगा, 
प्रति प्रभात का पावन चेहरा |

# अनीता सैनी 

सोमवार, सितंबर 9

चंद्रयान -2 : हार नहीं मानना इसरो !



  धड़कनों ने बुना खुली आँखों से  देखा, 
           वह ख़्वाब निराला  है  |

तसव्वुर से तराशा तमाम ख़्वाहिशों में सिमटा, 
वह चंद्रयान-2 उर  की ज्वाला  है |

साँसों ने  सजाया  गौरव हृदय पर  , 
वह दर्द-ए-जिगर का रखवाला है |

इसरो में  उपजी इबादत मेहर मेहनत की,  
वह अरदास का प्याला है |

नासा ने नवाज़ा निहारिका कह ,
वह भारत का सपूत अलबेला है |

भारत की आसमानी हसरतों का पुँज 
 गुमराह हुआ चाँद पर भविष्य का वह उजाला है |

लेंडर विक्रम हुआ बेवफ़ा जाकर मंज़िल के क़रीब  !
प्रति पल सवेरा उम्मीद का धैर्य ने  खोज निकाला है |

ओझल हुआ  सेटेलाइट लिंक नयनों से, 
वह लौटेगा यह विश्वास सबल साँसों ने संभाला है |

  - अनीता सैनी 

शनिवार, सितंबर 7

नये मोटर व्हीकल क़ानून का आख़िर विरोध क्यों ?


हम समझते हैं उन नियमों को, 
जिन्हें भारत सरकार ने जनहित में जारी किया, 
न ही हम किसी पार्टी विशेष को सपोर्ट  कर रहे,   
न ही  बग़ावत कर रहे  उन लोगों से जो,  
इस एक्ट का विरोध कर  रहे हैं,  
 नये मोटर व्हीकल क़ानून का आख़िर विरोध क्यों ?
कहाँ ख़ामी नज़र आयी हमें ? 
क्या  ट्रैफिक-पुलिस की 
रेड-लाइट जंप करना  ज़रुरी है ? 
क्या प्रतिबंधित क्षेत्र में गाड़ी पार्क करना? 
या सही तरीक़े  से गाड़ी पार्क नहीं करना,  
 टूवीलर ड्राइविंग के दौरान हेलमेट नहीं पहनना, 
कार ड्राइविंग के दौरान सीट बेल्ट नहीं लगाना, 
नंबर प्लेट नियमानुसार नहीं होने, 
बिना  लयसेंस गाड़ी चलाने, 
बिना रजिस्ट्रेशन गाड़ी चलाने, 
इंसोरेंस और प्रदूषण जाँच के दस्तावेज़  नहीं होने पर,  
या मोटर व्हीकल एक्ट में वाहन चालकों के लिये  
जारी अन्य मानक पूरा नहीं करने पर, 
वह चालान कर सकती है, 
क्या यह ग़लत है, 
अगर हम बिना ड्राइविंग लायसेंस,
रजिस्ट्रेशन और परमिट के वाहन चला रहे हैं,
उसी वक़्त  पुलिस हमारे  वाहन को मौक़े पर ज़ब्त,  करती, 
क्या यह ग़लत है ?
अगर हम  नशे में गाड़ी चला रहे हैं,
 मोबाइल पर बात करते हुए गाड़ी चला रहे हैं,
ओवर लोडिंग कर रहे हैं, 
या फिर रेड-लाइट जम्प करके भाग रहे हैं, 
तब पुलिस हमारे ड्राइविंग लायसेंस को सीज़ करती, 
क्या यह हमारे साथ ग़लत हो रहा है ?
क्या दुर्घटनाओं से हो रही हमारी रक्षा, 
या हमें  सभ्य नागरिक बनाने की सरकारी बाध्यता,  
क्या यह ग़लत है  ?
यातायात नियमों में अनुशासन आने से,  
दुर्घटनाएँ नियंत्रित होंगीं,  
किसी घर में बेवजह माँएं न रोंएँगीं, 
देश में सभ्य नागरिकों की संख्या में इज़ाफ़ा होगा, 
तब बुरी ख़बर का न कोई लिफ़ाफ़ा होगा, 
 क्या यह ग़लत है ? 

#अनीता सैनी 


बुधवार, सितंबर 4

लीज़ पर रखवा दिये रिश्ते सभी



ख़ामोशी से बातें करता था 
न जाने  क्यों लाचारी है  
कि पसीने की बूँद की तरह 
टपक ही जाती थी 
अंतरमन में उठता द्वंद्व 
ललाट पर सलवटें  
आँखों में बेलौस बेचैनी
 छोड़ ही जाता था 
दूध में कभी पानी की मात्रा
 कभी दूध की मात्रा घटती-बढ़ती रहती थी  
आज पैसे हाथ में थमाते हुए मैंने कहा 
"पानी तो अच्छा डाला करो भैया 
बच्चे बीमार पड़ जायेंगे "
और वह फूट पड़ा 
क्या करें ?
बहन 
जी !
 मन मोह गये शब्द उसके 
बनाया हृदय का राजदुलारा 
छाया आँखों पर प्रीत रंग 
विश्वास का रंग चढ़ा था गहरा 
तेज़ तपन से तपाया तन को  
बारी-बारी से जले
 न उसको ग़लत ठहराया 
मुकुट पहना उसे शान का 
ख़िताब उसे राजा का थमाया 
उसने भी एक दहाड़ से 
कलेजा सहलाया 
न चोरी करुँगा न करने दूँगा 
पहरेदार बन 
पहरेदारी  में 
इन्हीं शब्दों को दोहराया
आत्मीयता में सिमटा 
 तभी सो गया मन मेरा 
क्योंकि दहाड़ में 
रौब जो था ठहरा  
वर्षों बाद कोई आया था ऐसा 
न देगा चोट न करेगा ज़ख़्म गहरा 
ना-उम्मीद में सो रही साँसों को 
उम्मीद की लौ  का दिया सहारा 
पलट जायेगा पूँजीवाद का तख़्त 
आँखों को  ख़्वाब दिखाये सुनहरे 
इंतज़ार में बैठे हैं 
आज भी दर्द हमारे 
लूट रहा है हमें टैक्स की 
बेरहम टक्कर से 
या खोलेगा कोई राहत का पिटारा
लीज़ पर रखवा दिये  रिश्ते सभी 
होल्ड पर रखी है ज़िंदगी हमारी |

#अनीता सैनी