Powered By Blogger

मंगलवार, सितंबर 17

परछाइयों से कोई वास्ता नहीं


टाँग देते  हैं हम,  
समय में सिमटी साँसें, 
ज़िंदगी की अलगनी पर,  
कुछ बिन गूँथे ख़्वाब ख़्वाहिशों में सिमटे,   
वहीं तोड़ देते हैं दम, 
कुछ झुलस जाते हैं वक़्त की धूप से, 
कुछ रौंद देते हैं हम जाने-अंजाने में अपने ही क़दमों से|

कुछ अरमान पनप जाते हैं रोहिड़े-से, 
चिलचिलाती धूप में पानी के अभाव में भी, 
स्नेह सानिध्य की हल्की नमी से, 
मुखर हो उठते हैं उसके  रक्ताभ-नारंगी सुन्दर फूल, 
 एहसास की छाँव में आत्मविश्वास के,  
 मोहक पुष्प लिबास ख़ुशियों का ओढ़े,  
वक़्त-बे-वक़्त बेसब्र  हो उठती  है 
उनकी  मन मोहनी मादक  महक |

झरोखे से आशियाने में, 
प्रभात की प्रथम किरण के साथ, 
प्रवेश को आतुर हो उठता  है, 
कल्पनाओं का नैसर्गिक चित्रण, 
समाहित होती है उनमें एक प्रति परछाई,  
कुछ जानी-पहचानी अपनी-सी,  
 जिसे आँखें गढ़ने लगती  हैं,  
अपने ही आकार में,  
सम्मुख हो उठता है, 
वह वक़्त जब हम होते हैं राग-द्वेष में,   
मसल देते हैं, 
अपने ही हाथों से ख़ूबसूरत लम्हात, 
नन्ही कली-से नाज़ुक जज़्बात |

धूप से बनी दीवारों पर, 
अनगिनत परछाइयों से कोई रिश्ता नहीं, 
फिर भी न जाने क्यों, 
उनके चले जाने से दर्द उभर आता है, 
वे जीवित होती हैं कहीं अपने ही ब्रह्माण्ड में, 
 दिल धड़कता है उनका भी, 
उनकी साँसें भी पिरोती हैं ख़ूबसूरत स्वप्न, 
वे पाकीज़ा आँखें भी तलाशती हैं, 
प्रकृति का अनछुआ अकल्पित निर्मल प्रेम, 
न जाने क्यों वे ओझल हो जाती हैं, 
समेटे अपना सात्विक अस्तित्त्व अपनी ही 
जीवन रेखा की अलगनी पर, 
और उभर आती है, 
एक और परछाई हृदय की दीवार पर, 
 जिससे कोई वास्ता नहीं,
फिर भी वह अपनी-सी नज़र आती है |


- अनीता सैनी 

27 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (18-09-2019) को    "मोदी स्वयं सुबूत"    (चर्चा अंक- 3462)    पर भी होगी। --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय चर्चा मंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु |
      प्रणाम
      सादर

      हटाएं
  2. अपने ही हाथों से ख़ूबसूरत लम्हात,
    नन्ही कली-से नाज़ुक जज़्बात,
    धूप से बनी दीवारों पर,
    अनगिनत परछाइयों से कोई रिश्ता नहीं,
    फिर भी न जाने क्यों,
    उनके चले जाने से दर्द उभर आता है,

    वाह्ह्ह वआह्ह् अनिता
    गजब¡

    कतरा - कतरा पिघलती रही जिंदगी
    ख्वाबों के सफर में चलती रही जिंदगी
    उम्र कटती रही पुख्ता सांसों के सफर में
    तब तलक नकाब बदलती रही जिंदगी।

    बहुत बहुत गहराई लिए जीवन के कितने पहलु समाहित होते गये रचना में ।
    एहसास जो मूक ही सही हमेशा साथ होते है।
    अप्रतिम।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहे दिल से आभार प्रिय कुसुम दी जी |आप के अपार स्नेह और रचना की सुन्दर समीक्षा एवं भावों को गहराई से समझने के लिए |19वर्ष का वह आर्मी ऑफिसर जिसे कभी देखा भी नहीं, उस बच्चे का बलिदान हृदय से फूट पड़ा, कुछ समझ न पाई और उसने रचना का रुप धारण कर लिया मुझे माँ होने के गौरव से नवाज दिया.... |ज़िंदगी के इस पहलू को प्रेम से नवाज़ने के लिए तहे दिल से आभार प्रिय दी जी |
      सुप्रभात
      सादर

      हटाएं
  3. वक़्त-बे-वक़्त बेसब्र हो उठती है
    उनकी मोहक महक,
    झरोखे से घर के अंदर,
    प्रभात की प्रथम किरण के साथ,
    प्रवेश को आतुर हो उठती है,
    कल्पनाओं का नैसर्गिक चित्रण,
    समाहित होता है उनमें,
    परछाई होती है,
    कुछ जानी-पहचानी अपनी-सी, बेहद खूबसूरत रचना सखी 🌹👌

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सस्नेह आभार प्रिय सखी अनुराधा जी |आप के इस अपार स्नेह और सहयोग के लिए शब्द नहीं है |किन शब्दों से आभार व्यक्त करू आप का...
      बस आभार और आभार
      सादर

      हटाएं

  4. दिल को छूता अति सुंदर सृजन सखी

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहे दिल से आभार बहना आपने सुन्दर समीक्षा से रचना को नवाज़ा
      सुप्रभात
      सादर

      हटाएं
  5. ये जानी पहचानी पर्चैयें अपनों से मिलती जुलती होती हैं ... तभी तो इनता प्रिय होती हैं ... भावपूर्ण रचना है ...

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय उत्साहवर्धन समीक्षा हेतु |आप का सानिध्य यूँ ही बना रहे|
      सुप्रभात
      सादर नमन

      हटाएं
  6. एक अभिव्यक्ति जिसमें समेटे गये हैं सुकोमल एहसासात जो जीवन यात्रा के विभिन्न पड़ावों पर अपनी उपस्थिति दर्ज़ कराते हुए गज़रते हैं। रचना में बिम्बों और प्रतीकों का इस्तेमाल भाषा सौंदर्य और अलंकारिक मानदंडों की नवीनतम ख़ुशबू जैसा प्रतीत होता है। कहीं-कहीं पाठक उलझ सकता है भावात्मक तारतम्य के बिखराव में।

    रचना में प्रयुक्त शब्दावली पाठक को माधुर्य और लाळिल्य से सराबोर करती है।

    बधाई एवं शुभकामनाएँ।

    लिखते रहिए।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. कृपया 'गज़रते' को गुज़रते पढ़ें।

      सधन्यवाद।

      हटाएं
    2. सहृदय आभार आदरणीय रवीन्द्र जी |आप यूँ अभिभावक की तरह मेरा मार्गदर्शन करना शब्दों से परे है कि किन शब्दों से आप आभार व्यक्त करूँ |मेरे लेखन को और प्रवाह देने लिए और समय समय मेरा मेरा मार्गदर्शन करने के लिए आप का तहे दिल से आभार, हमेशा यूँ ही आप मार्गदर्शन करते रहे यही उम्मीद है आप से, भावात्मक तारतम्य के बिखराव के लिए आप से माफ़ी चाहती हूँ, भविष्य में और बेहतरीन करने का प्रयास रहेगा | मार्गदर्शन हेतु तहे दिल से आभार 🙏)
      सुप्रभात
      सादर

      हटाएं
  7. बेहतरीन सृजन... रचना के सौन्दर्य को कोमलकान्त शब्दावली के प्रयोग ने द्विगुणित कर दिया है । बहुत बहुत बधाई इतने सुन्दर सृजन के लिए ।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. तहे दिल से आभार प्रिय मीना दी -मेरे प्रयास को प्रवाह प्रदान करने के लिए |रचना को अपने स्नेह से नवाज़ने के लिए |आप का स्नेह हमेशा बना रहे
      सादर नमन

      हटाएं
  8. बेहद खूबसूरत भावों में गुंथी अभिव्यक्ति

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय उत्साहवर्धन समीक्षा हेतु
      प्रणाम
      सादर

      हटाएं
  9. वह वक़्त जब हम होते है राग द्वेष में,
    मसल देते हैं,
    अपने ही हाथों से ख़ूबसूरत लम्हात,
    नन्ही कली-से नाज़ुक जज़्बात,
    धूप से बनी दीवारों पर,
    अनगिनत परछाइयों से कोई रिश्ता नहीं,
    फिर भी न जाने क्यों,
    उनके चले जाने से दर्द उभर आता है,
    वे जीवित होती हैं कहीं अपने ही ब्रह्माण्ड में,
    दिल धड़कता है उनका भी,
    उनकी साँसें भी पिरोती हैं ख़ूबसूरत स्वप्न,
    वे पाकीज़ा आँखें भी तलाशती हैं,

    अद्भुत। अप्रतिम। अहहहा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय आप का रचना को इस अनमोल समीका से नवाज़ने के लिए |अपने क़ीमती वक़्त में कुछ पल मेरी रचना के लिए भी निकाला करें |इसी उम्मीद के साथ... |सादर नमन

      हटाएं
  10. वाह!!वाह!सखी , खूबसूरत ,बहुत खूबसूरत !!सुंदर भावों मेंं पिरोया एक-एक शब्द ....अद्भुत!!

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय बहन शुभा आप की समीक्षा हमेशा ही हृदय में उत्साह का संचार करती है और मेरी लेखनी और लेखन को एक प्रवाह मिलता, अपना स्नेह हमेशा बनाये रखे |
      सादर नमन

      हटाएं
  11. कुछ पनप जाती हैं रोहिड़ा-सी,
    चिलचिलाती धूप में पानी के अभाव में भी,
    स्नेह सानिध्य की हल्की नमी से,
    वाह!!!!
    बहुत ही लाजवाब दिल की गहराइयों से सुकोमल एहसासों को समेटे बहुत ही हृदयस्पर्शी सृजन।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय सुधा दी जी -आप ने रचना की आत्मा को थमा शब्द नहीं है मेरे पास, रोहिड़े की उपमा देने की मेरी दिलीए मनसा था एक तो उसका पुष्प राज्य पुष्प है एक उसके जैसा जीवन सायद जीना.... आशा और उम्मीद को बाँधे रखता है जीवन उसका सायद उसका जीवन काल मुझे बहुत प्रभावित करता है मेरी प्रेणा स्रोत भी रहा है |
      सादर नमन

      हटाएं
  12. और उभर आती है,
    एक और परछाई हृदय की दीवार पर,
    जिससे कोई वास्ता नहीं,
    फिर भी वह अपनी-सी नज़र आती है
    यह मानव जीवन है..
    स्नेह की छांव की चाह में परछाई को भी हम अपना समझ यह सोचते है कि वह हमारे तप्त हृदय को शीतलता प्रदान करेगी , लेकिन वह कहाँ स्थिर है..
    सादर

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय शशि भाई आप का ब्लॉग पर बहुत बहुत स्वागत है आप की अनमोल समीक्षा के लिए हृदय तल से आभार आप का
      सादर नमन

      हटाएं
  13. वह वक़्त जब हम होते है राग द्वेष में,
    मसल देते हैं,
    अपने ही हाथों से ख़ूबसूरत लम्हात,
    नन्ही कली-से नाज़ुक जज़्बात,
    धूप से बनी दीवारों पर,
    इन्ही राग द्वेषों में रत होकर हम कोई अनमोल रिश्ता गंवा बैठते हैं | बहुत अच्छा लिखा तुमने प्रिय अनीता | जीवन का ये दर्शन बहुत गूढ़ है |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. प्रिय रेणु दी -पहले प्रणाम आप को
      आप की सुंदर समीक्षा ने रचना को प्रवाह मिलता है |और मेरे हृदय को सुकून, आप जिस तरह मेरे विचरों को पढ़ती है शब्द नहीं है आप का कैसे आभार व्यक्त करूँ |मेरा हाथ यूँ थामे रहना अभिभावक की तरह..
      सादर नमन दी और बहुत सारा स्नेह आप को

      हटाएं