धरा के दामन से
विश्वास
सुलग रही हैं
साँसें
साँसें
कूटनीति जला रही है ज़िंदा
मानस
सुख का अलाव
जला भी नहीं
जला भी नहीं
दर्द धुआँ बन आँखों में
धंसता गया
निर्धन प्रति पल हुआ
बेचैन
वक़्त वहीं गया
धंसता गया
निर्धन प्रति पल हुआ
बेचैन
वक़्त वहीं गया
ठहर
झगड़ता रहा
मैं, मेरे का कारवां
मैं, मेरे का कारवां
बिखर गये घरौंदे
परिवेश में घुलता रहा
परिवेश में घुलता रहा
ज़हर
सौंप गये थे जो धरोहर
देश को
छल रही है उसे
सत्ता-शक्ति
मोह देखो उसका
अंधी बन स्वार्थ के हुई
वह अधीन
बिखर रहा है
बंधुत्व का
स्वप्न
झुलस रहा है
हिंद के दामन में
प्रेम
प्रकृति को रौंद रहे हैं
दिन दहाड़े
पग-पग पर हो रहा है
भावनाओं का
क़त्ल-ए-आम
तुम देख रहे हो साहेब
कितना बदल गया है
इंसान |
©अनीता सैनी
सौंप गये थे जो धरोहर
देश को
छल रही है उसे
सत्ता-शक्ति
मोह देखो उसका
अंधी बन स्वार्थ के हुई
वह अधीन
बिखर रहा है
बंधुत्व का
स्वप्न
झुलस रहा है
हिंद के दामन में
प्रेम
प्रकृति को रौंद रहे हैं
दिन दहाड़े
पग-पग पर हो रहा है
भावनाओं का
क़त्ल-ए-आम
तुम देख रहे हो साहेब
कितना बदल गया है
इंसान |
©अनीता सैनी