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शनिवार, नवंबर 30

यथार्थ था यह स्वप्न



 घटनाएँ 
लम्बी कतार में बुर्क़ा पहने  
सांत्वना की  प्रतीक्षा में 
लाचार बन  खड़ी थीं | 

देखते ही देखते 
दूब के नाल-सी 
बेबस-सी हुई  कतार 
 और बढ़ रही थी |

समय का
 हाल बहुत बुरा था 
सन 1920 का था 
अंतिम पड़ाव 
सन 2020
 सेहरा शीश पर लिये 
 गुमान में खड़ा था |

लालसाओं के तूफ़ान से
 उजड़ा परिवेश 
पश्चिमी सभ्यता के 
क़दमों में पड़ा था |

मंहगाई की मार से 
भूख-प्यास में तड़पता 
आधुनिकता के नाम पर पाषाण 
बन खड़ा था 
शोषण का यह वही 
नया दौर था |

नशे के
 नाम पर नई करतूत 
नौजवानों 
के साथ खड़ी थी 
स्त्रियों की 
 लाचारी दौड़ती नस-नस में 
अबला बन 
वह वहीं खड़ी थी |

बोरे में बंद क़ानून घुटन से 
तिलमिलाता रहा 
पहरे में कुछ 
राजनेताओं की आत्मा 
राजनीति का खड़ग लिये 
भी  खड़ी थी |

स्वतंत्रता सेनानियों की 
प्रतिमाओं से 
 लहू के निकलते आँसू 
पोंछने को 
चीर आँचल का  
 माँएँ  तलाश रही थीं  | 

यथार्थ था यह स्वप्न 
वज़्न हृदय सांसों पर 
ढो  रहा था 
सृष्टि की पीड़ा से 
 प्रलय की  आहट 
निर्बल को क़दमों से रौंदता  
यह दौर प्रभुत्त्व को 
ढो  रहा था |

© अनीता सैनी 

शुक्रवार, नवंबर 29

यादें तुम्हारी



 यादें तुम्हारी, 
अनगिनत यादें ही यादें, 
 छिपाती हूँ, 
जिन्हें व्यस्तता के अरण्य में, 
 ख़ामोशी की पतली दीवार में, 
ओढ़ाती हूँ, 
उनपर भ्रम की झीनी चादर, 
 मुस्कुराहट सजा शब्दों पर, 
 अकेलेपन को बातों में, 
 फिर उलझा रह जाती हूँ  |


यकब-यक विरह के, 
उसी भयानक भँवर में डूब रह जाती हूँ, 
विकल हो उठता है सीपी-सा प्यासा हिय,  
फिर तुम्हारी प्रत्याशा में, 
क्षुब्ध मन करता है परिमार्जन यादों का,  
हाँकते हुए साँसों को, 
 डग जीवन के भरती हूँ |

परछाई-सी वह तुम्हारी, 
पहलू में बैठ, 
मुस्कुराहट का राज़ बताती है,  
सूनेपन के उन लम्हों में, 
वीणा की धुन-सा, 
 सुरम्य साज़ बजाती है |


बीनती हूँ  बिखरे एहसासात की, 
  गत-पाग-नूपुर-सी वे मणियाँ, 
अर्पितकर अरमानों की अमर सौग़ातें, 
 अतिरिक्त नहीं अन्य राह जीवन में, 
पैग़ाम यादों का मुस्कुराते हुये मैं सुनती हूँ |

© अनीता सैनी 

मंगलवार, नवंबर 26

बरगद की छाँव बन पालने होते हैं




  अल्हड़ आँधी का झोंका भी ठहराव में, 
शीतल पवन का साथी बन जाता है, 
  ग़ुबार डोलता है परिवेश में  
मुठ्ठी में छिपाता है आहत अहं के तंतु, 
बिखरकर वही द्वेष बन जाता है |

विचलित मन मज़बूरियाँ बिखेरता है, 
सिसकता है साँसों में जोश,  
मानव मस्तिस्क भरमाया-सा फिरता है, 
 छूटता  नहीं  मैं  का  साथ, 
क्षणिक हो जाते हैं उसमें  मदहोश, 
बाक़ी बचे पाषाण बन जाते हैं | 

गाँव-गाँव और शहर-शहर,  
 अपाहिज आशाओं का उड़ता शौक है, 
सयानी सियासत समझ से स्वप्न संजोती है, 
मरा आँख का पानी उसी पानी का, 
यह दोष बन जाता है |

दिलों पर हुकूमत तलाशता है, 
ख़्वाहिशों का पहला निवाला, 
न भूल जिगर पर राज वफ़ा का होता है, 
बरगद की छाँव बन पालने होते हैं,   
 अनगिनत सपनों  से  सजे संसार, 
तभी दुआ में प्रेम मुकम्मल होता है |

© अनीता सैनी 

रविवार, नवंबर 24

यों न सितारों की माँग कर



तल्ख़ियाँ तौल रहा तराज़ू से ज़माना,  
नैतिकता क्षणभँगुर कर हसरतें हाँकता रहा,    
 समय फिर वही दौर दोहराने लगा,  
हटा आँखों से  वहम की पट्टी,
 फ़रेब का शृंगार जगत् सदा करता रहा |

 संस्कारों में है सुरक्षित आज की नारी,  
 एहसास यही वक़्त को लगता है भारी,  
वर्जना को बेड़ियाँ बता वो तुड़वाता रहा,  
संभाल अस्मिता अपनी ऐ वर्तमान की नारी |

स्वार्थ के लबादे में लिपटी है  हर साँस,  
धुन प्रगति की है उस पर  सवार, 
मिलकर तो देख एक पल  प्रकृति से,
 किया कैसे है उसे नीस्त-नाबूद, 
प्रपंच प्रखर हैं इस लुभावने सन्नाटे के,
इसके प्रभाव को परास्तकर, 
तलाश स्थिर अस्तित्त्व अपना, 
संघर्ष में छिपा है तुम्हारा वजूद  |

आत्मबल से बढ़कर न कोई साथी, 
राह सृजितकर हाथों में रख कर्म की पोथी ,  
मिली है जीवन में संस्कारों की जो विरासत, 
 नादानी में उसे न ग़ुमनाम कर,  
मिला है जो अनमोल ख़ज़ाना संस्कृति से हमें ,
सहेज जीवन मूल्यों की समृद्ध सुन्दर थाती,   
यों न सितारों की माँग कर |

©अनीता सैनी 

शुक्रवार, नवंबर 22

दर्द सांभर झील का



साल-दर-साल हर्षित हृदय लिये  
आते हो तुम लाखों की तादाद में 
इस बार हुआ क्या ऐसा 
प्रवासी पक्षी तुम्हारी जान को 

शीत ऋतु में आकर मान मेरा बढ़ाते हो 
खिल उठाती है क़ुदरत जब चहचाहट तुम्हारी होती है 
ख़ुशी से हृदय मेरा फूला नहीं समाता है 
जब जल में मेरे आहट तुम्हारी होती है 

गर्वित हो उठती हूँ देखो !
तुम्हारे इस सम्मान पर 
अतिथि बन तुम आते हो
 आँगन में मेरे खिलती मीठी मुस्कान है 

नमक-सा नीर है मुठ्ठी में मेरे 
फिर भी तुम्हें  खींच ले आती हूँ 
 स्नेह कहूँ तुम्हारा इस मिट्टी से या 
सौभाग्य मेरा तुम्हें बुलाता है 

अतिथि सत्कार में थी न कोई कमी 
पलकें बिछाये बैठी थी 
आँचल में समेटे दाना-पानी 
पल-पल बाट तुम्हारी जोहती हूँ 

मिलना-बिछड़ना सिलसिला है यही 
प्रति वर्ष का 
तुम लौटोगे इसी उम्मीद में 
साँसों में आशाएँ सजोये रहती हूँ 
आगमन से तुम्हारे 

बच्चे भी मेरे 
  खाते पेटभर खाना है 
सैलानी जो इसी ऋतु में  
तुम्हें देखने आते हैं 

थक गये थे बटोही राह में 
सफ़र की लम्बी थकान से 
खाना नहीं मिला राह में 
राहगीर तुम्हें धरा की ठण्डी छाँव में 

रोग लगा था दिल में दयनीय 
दर्दभरे ये  आँसू  छलके कैसे  
 जानूँ  कैसे राज़ यह गहरा 
लम्बी ख़ामोशी का दिया क्यों पहरा 
आते ही आँचल में मेरे 

टीस उठी उर  में भारी 
ज़हर बता रहे जन जल को मेरे 
पलकों के पानी-सी लवणता है मुझमें
 ज़हर का दाग़ अब लगा है गहरा 
प्रवासी परिंदे  क्यों सोये  तुम चिरनिद्रा में ? 
डूब गयी मैं आत्मग्लानि और गहरी  कुंठा में  |

©अनीता सैनी 

गुरुवार, नवंबर 21

बिटिया मेरी बुलबुल-सी



उन  पथरायी-सी आँखों  पर, 
तुम प्रभात-सी मुस्कुरायी,  
मायूसी में डूबा था जीवन मेरा 
तुम बसंत बहार-सी बन 
आँगन में उतर आयी,  
तलाश रही थी ख़ुशियाँ जहां में, 
 मेहर बन हमारे दामन में तुम खिलखिलायी |

चमन में मेरे फूलों-सी महक लौट आयी,   
 बिटिया प्यारी-दुलारी बुलबुल-सी मेरी, 
 मासूमियत की सरगम पर, 
हृदय की वीणा झंकृत हो इठलायी, 
 झरने की कल-कल-सी बहती प्यारी मीठी बातें,  
  सीने में  शीतल  नीर बन,  
रहमत परवदिगार की 
नूर बन नयनों में समायी |

खिलखिलाती हँसी से तुम्हारी, 
सुख हृदय में उभर आया,  
न्यौछावरकर जीवन अपना,  
यही पाठ है पढ़ाया,   
बिठूर की बिटिया-सा साहस सीने में,  
स्वाभिमान की चिंगारी है जलायी |

बचपन-सा इठलाया जीवन मेरा, 
अम्मा बन जब तुमने हक़ है जताया,  
तुम्हारी अनेकों समझाइशों पर नासमझ बन, 
ज़िंदगी मेरी मुस्कुरायी, 
मम्मा आप नहीं समझते ! 
सुन कलेजा मेरा भर आया 
जीवन में सच्ची सखी का सुख है मैंने पाया, 
विचलित मन से फ़िक्र तुमने बरसायी, 
सुकून हृदय में आँखों में नमी है  मैंने पायी  |

©अनीता सैनी 

मंगलवार, नवंबर 19

किरदार का अनचाहा कलेवर

  

समय के साथ समेटना पड़ता है वह दौर, 
  जब हम खिलखिलाकर हँसते हैं, 
बहलाना होता है उन लम्हों को,  
जो उन्मुक्त उड़ान से
 अपने गंतव्य की ओर प्रस्थान करते हैं,  
गठरी में बाँधनी पड़ती है, 
उस वक़्त धूप-सी बिखरी कुछ गुनगुनी यादों को,  
ताकि मिल सके जीवन के अगले ही पल को संबल |

न चाहते हुए, 
 धीरे-धीरे ढालना पड़ता है स्वयं को, 
अनचाहे आकार में, 
बदलना पड़ता है,  
अपने कोमल किरदार के कलेवर को, 
स्वयं को विश्वास दिलाना पड़ता है, 
कि जो वह थी अब वह वो नहीं है, 
कितना मुश्किल होता है स्वयं को, 
यह विश्वास दिलाना कि शिव और शक्ति वह स्वयं ही है |

तय करना पड़ता है उसे अगले ही पल, 
अपना अलग ओझल-सा अस्तित्त्व, 
जिसे वह स्वयं भी नहीं पहचानती, 
शीतल हवा के झोंके से निकल, 
तब्दील होना होता है उसे आँधी में, 
उस कोमल किरदार की रक्षा के लिये |

©अनीता सैनी 

शनिवार, नवंबर 16

आहट हुई थी उजली आस पर




हृदय पर अनहोना आभास सीये, 
यथार्थ के नर्म नाज़ुक तार पर, 
दबे पाँव दौड़ती है दावाग्नि-सी, 
ख़ुशबू-सी उड़ती है विश्वास पर, 
आहट हुई थी उजली आस पर  |

चलती है एहसास की थामे अँगुली,  
अचल अंबर-सा लिये हाथ में हाथ, 
सवार रहती है पलकों के कोरे कोर पर,  
 सुलगती है सुरम्य ताल लिये विरहनी-सी, 
एक पल के जंजाल पर, 
आहट हुई थी उजली आस पर  |

 मर्म की मोहक सौग़ात पर,  
बिखरती है समय की अकुलाहट पर, 
संग एक पल के सुकूँ के साज़ पर, 
अमूर्त मन की मूर्त  सजावट पर     
 चित्त के चैन पर डोलती है 
समय-सी यादों की सरसराहट पर, 
स्वाति नक्षत्र की बूंदों-सा आवरण गढ़े, 
कर्म की बदलती राह पर, 
आहट हुई थी  उजली आस पर  |

धड़कती है धड़कनों की सीढ़ियों पर, 
मन के छज्जे पर रहती है सवार, 
 उम्मीद का झरना लिये साँसों पर, 
कर्म का कोमल कलेवर लिये, 
अपनी ही बिसात पर, 
आहट हुई थी उजली आस पर  |

© अनीता सैनी 

बुधवार, नवंबर 13

मुद्दतों बाद आज मेरी दहलीज़ मुस्कुरायी



बरसी न बदरिया न मुलाक़ात बहारों से की,  
न तितलियों ने ताज पहनाया न फुहार ख़ुशियों ने की,  
 मिली न सौग़ात सितारों की, 
ढलती शाम में वह कोयल-सी गुनगुनायी,   
 मुद्दतों बाद आज मेरी दहलीज़ मुस्कुरायी | 

 अनझिप पलकों पर सुकूँन उतर आया, 
प्रतीक्षारत थे घर के कोने-कोने,   
  आज वह उजाला आँगन का लौट आया, 
वीरानियों में हलचल सुगबुगायी,  
 ज़िंदगी में एहसासात उभर आये,   
आहटों को तरसती दर्दीली दास्तां,  
 तमन्नाओं की लता पल्लवन-सी इठलायी,     
 मुद्दतों बाद आज मेरी दहलीज़ मुस्कुरायी | 

रुस्वाइयों में सहमी-सी सिमटती रही,  
आज चंचल पवन-सी लहरायी,  
मौन में मुखर हुआ सुरम्य संगीत,  
वह पागल पुरवाई-सी इतरायी,  
 खिली चाँदनी धरा पर पूनम का चाँद उतर आया, 
चौखट पर हसरतों ने चुपके से थाप लगायी,
 मुद्दतों बाद आज मेरी दहलीज़ मुस्कुरायी  | 

 © अनीता सैनी 

सोमवार, नवंबर 11

मुख पर वो मुस्कान कैसे लाऊं ?


















अपने ही दायरे में सिकुड़ रही अभिव्यक्ति, 
पनीली कर सकूँ ऐसा नीर कहाँ से लाऊँ ? 
कविता सृजन की आवाज़ है चिरकाल तक जले,  
कवि हृदय में वो अगन कैसे लजाऊँ ? 

समझा पाऊँ शोषण की परिभाषा,  
ऐसा तर्क कहाँ  से लाऊँ ? 
स्वार्थ के लबादे में लिपटा है इंसान, 
जगा सकूँ इंसानियत को वो परवाज़ कहाँ से लाऊँ ? 

सत्ता-शक्ति का उभरता लालच, 
 राजनीति की नई परिभाषा जनमानस को कैसे समझाऊँ ?  
शक्ति प्रदर्शन कहूँ या देश के भविष्य पर डंडों से करते बर्बर वार,  
 मरघट बनी है दुनिया इसे होश में कैसे लाऊँ ? 

हैवानियत की इंतिहा हो चुकी, 
इंसानियत की  बदलती तस्वीर कैसे दिखाऊँ ? 
मर रहा मर्म मानवीय मूल्यों  का,   
स्वार्थ के  खरपतवार को कैसे जलाऊँ ? 

अंजुरी भर पीने को भटकता है समाज,  
परमार्थ की शरद चांदनी को,  
सिहरती  सिसकती मासूम बालाओं के मुख पर 
  वो नैसर्गिक मुस्कान कैसे लाऊँ ?

©  अनीता सैनी 

शनिवार, नवंबर 9

मौन में फिर धँसाया था मैंने उन शब्दों को



 कुछ हर्षाते
 लम्हे 
अनायास ही
 मौन में मैंने 
धँसाये  थे  
आँखों  के
 पानी से भिगो
 कठोर किया उन्हें  
साँसों की 
पतली परत में छिपा
 ख़ामोश
 किया था जिन्हें 
फिर भी 
 हार न मानी उन्होंने 
 उसे 
 अतीत की 
दीवार में चिनवा चुप्पी साधी थी 
मैंने  
उन लम्हों में 
बिखर गये थे कुछ शब्द  
कुछ लिपट गये
 भविष्य के पैरों से   
वक़्त की
उजली कच्ची 
 धूप सहते हुए 
 ज़िंदगी
 के गलियारे में 
अपने
 अस्तित्त्व 
की नींव गढ़ते
  राह में मुखर हो 
 समय की 
दहलीज़ पर 
इतिहास के पन्नों में 
बरगद 
की छाँव बन 
भविष्य की अँगुली 
थाम
 जीवन की 
राह में मील के 
पत्थर बन  
पूनम की साँझ में 
मृदुल मौन बनकर वे 
पराजय का
 दुखड़ा भी न रो पाये 
तीक्ष्ण असह वेदना 
से लबालब 
अनुभूति का जीवन 
 जीकर  
पल प्रणय में भी नहीं खो पाये 
तभी उन्हें  
मौन में फिर धँसाया था 
मैंने  |


© अनीता सैनी 

बुधवार, नवंबर 6

जनाब कह रहे हैं ख़ाकी और काला-कोट पगला गये हैं


जनाब कह रहे हैं 
 ख़ाकी और काला-कोट पगला गये हैं  
और तो और सड़क पर आ गये हैं  
 धाक जमा रहे थे हम इन पर 
सफ़ेद पोशाक  पहन 
पितृ देव का रुतबा दिखा 
भविष्यवाणी कर रहे थे 
शब्दों का प्रभाव क्या होता है 
ख़ाकी और काले-कोट को 
अँगुली पर नचा रहे थे 
नासपीटे धरने पर बैठ गये 
पहले काला-कोट अब यह ख़ाकी  
परिवार सहित सड़क पर जाम लगाये बैठे हैं  
बुद्धि भिनभिना रही है हमारी 
ये  होश  में  कैसे आ रहे हैं ? 
जागरुकता का यह क्या झमेला है ? 
ख़ामोश करो इन सभी को 
कोई नई सुरँग खोदो  
नया उजला चोगा बनवाओ 
नया अवतार गढ़ो 
 एक बार फिर उजाले का 
देवता और मसीहा मुझे कहो 
सफ़ेद पोशाक के पीछे 
मेरी हर करतूत छिपाओ
हुक्म की अगुवाही नहीं हुई 
बौखला गये जनाब
वहम की पट्टी खुलती है और 
मंच पर पर्दा गिरता है
क़दम डगमगाते हैं 
साँसें गर्म हो
 शिथिल पड़ जाती हैं 
जनाब यह 
२०२० की पैदाइश हैं  
एक बच्चा कान में फुसफुसाता है !

©अनीता सैनी 

मंगलवार, नवंबर 5

दर्द दिल्ली का



ज़िंदगियाँ 
निगल रहा प्रदूषण  
क्यों पवन पर प्रत्यंचा
चढ़ायी है ? 
कभी अंजान था मानव 
इस अंजाम से 
आज वक़्त ने
 फ़रमान सुनाया है 
चिंगारी 
शोला बन धधक रही 
मानव !
किन ख़्यालों में खोया है
वाराणसी 
सिसक-सिसक तड़पती रही 
आज दिल्ली 
 नाज़ुक हालत में पायी है 
 देख !
कलेजा 
 मुँह को भर आया 
क्यों गहरी नींद में स्वयं को सुलाया है 
सल्फ़ाइड का धुँआ खुले आसमान में 
उड़ रहा 
 क्यों मौत को हवा में मिलाया 
चंद सिक्कों का मुहताज बन दर्द का 
दरिया क्यों बहाया है 
इतिहास गवाह है
 सदियों से 
सहती आयी 
 हर दौर का जख़्म सहलाया   
न टपका आँख से पानी न नमी पलकों को  
छू पायी है 
वक़्त का सुनाया फ़रमान 
इसकी हिम्मत में
 न कमी पायी   
आज न जाने क्यों 
बेबस और लाचार नज़र आयी है 
उम्र ढल गयी या 
अपनों ने यह रोग 
थमाया है 
साँसों में घोल रहा क्यों ज़हर 
तड़प रही प्रति पहर है 
आँखों पर क्यों धुंध छाई है |

© अनीता सैनी

शनिवार, नवंबर 2

शिकवा करूँ न करूँ शिकायत तुमसे



शिकवा करूँ न करूँ तुमसे शिकायत कोई, 
बिखर गया दर्द, दर्द का वह मंज़र लूट गया,  
समय के सीने पर टांगती थी शिकायतों के बटन, 
राह ताकते-ताकते वह बटन टूट गया |

मज़लूम हुई मासूमियत इस दौर की,  
 भटक गयी राह, 
इंसान अच्छे दिनों के दरश को तरस गया,  
सुकूँ सजाता है मुसाफ़िर मंज़िल के मिल जाने पर, 
वह मंज़िल की राह भटक गया |

दीन-सी हालत दयनीय हुई जनमानस की, 
वो अब निर्बोध बन गया, 
उम्मीद के टूटते तारों से पूछता है वक़्त जनाब, 
हिचकियों का मतलब भूल गया |

बहका दिया उन चतुर वासिंदों ने उसे,  
बौखलाकर वनमानुष-सा बदहवास हो हमें भूल गया, 
हालात बद से बदतर हुए, 
बदलाव की परिभाषा परोसते-परोसते, 
लहू हमारा सोखता गया |

परवान चढ़ी न मोहब्बत खेतिहर की , 
जल गयी पराली और बिखर गयी आस्था खलिहान में, 
खिलौना समझ खेलता रहा ज़ालिम, 
डोर अब किसी और के हाथों में थमाता गया |

© अनीता सैनी 

शुक्रवार, नवंबर 1

क्यों नहीं कहती झूठ है यह



क्यों नहीं कहती झूठ है यह,  
तम को मिटाये वह रोशनी हो तुम,  
 पलक के पानी से जलाये  दीप,  
ललाट पर फैली स्वर्णिम आभा हो तुम,  
संघर्ष से कब घबरायी ? 
मेहनत को लाद कंधे पर, 
 जीवन के हर पड़ाव पर मुस्कुरायी तुम |

बाँध देती हो पलभर में प्रलय-सी, 
मायूसी की पोटली को तुम,  
फिर ढलती शाम संग, 
जी उठती हो, 
 नव प्रभात नव किरण के साथ तुम,  
हौसले को रखती हो साथ, 
मंज़िल की तलबगार हो तुम |

नारी हो तुम, 
 नारी-शक्ति ख़ुद में एक हथियार हो तुम, 
हिम्मत संग डग भरो, 
शौर्य से करो फिर मुलाक़ात तुम, 
इंदिरा गाँधी को याद करो, 
नयन से नहीं नीर बहाओ तुम, 
अबला बन हाथ न जोड़ो, 
सबला बन अधिकारों को अपने पहचानो,   
नारी हो तुम नारी को नहीं लजाओ तुम |

बेटी बोझ नहीं कंधे का, 
जनमानस को यह दिखलाओ  तुम,  
 कर्मठ कर्मों का दीप जला, 
परिस्थितियों को पैनीकर राह जीवन में बना,  
हालात का बेतुका बोझ नहीं दिखलाओ तुम,  
कफ़न का उजला रंग शर्माएगा, 
सूर्य-सी आभा घर-आँगन में,  
धरा के दामन में फैलाओ तुम |

© अनीता सैनी