लम्बी कतार में बुर्क़ा पहने
सांत्वना की प्रतीक्षा में
लाचार बन खड़ी थीं |
देखते ही देखते
दूब के नाल-सी
बेबस-सी हुई कतार
और बढ़ रही थी |
समय का
हाल बहुत बुरा था
सन 1920 का था
अंतिम पड़ाव
सन 2020
सेहरा शीश पर लिये
गुमान में खड़ा था |
लालसाओं के तूफ़ान से
उजड़ा परिवेश
उजड़ा परिवेश
पश्चिमी सभ्यता के
क़दमों में पड़ा था |
मंहगाई की मार से
भूख-प्यास में तड़पता
आधुनिकता के नाम पर पाषाण
बन खड़ा था
आधुनिकता के नाम पर पाषाण
बन खड़ा था
शोषण का यह वही
नया दौर था |
नशे के
नाम पर नई करतूत
नौजवानों
के साथ खड़ी थी
स्त्रियों की
लाचारी दौड़ती नस-नस में
अबला बन
वह वहीं खड़ी थी |
बोरे में बंद क़ानून घुटन से
तिलमिलाता रहा
तिलमिलाता रहा
पहरे में कुछ
राजनेताओं की आत्मा
राजनीति का खड़ग लिये
भी खड़ी थी |
स्वतंत्रता सेनानियों की
प्रतिमाओं से
लहू के निकलते आँसू
पोंछने को
पोंछने को
चीर आँचल का
माँएँ तलाश रही थीं |
यथार्थ था यह स्वप्न
वज़्न हृदय सांसों पर
ढो रहा था
सृष्टि की पीड़ा से
प्रलय की आहट
निर्बल को क़दमों से रौंदता
निर्बल को क़दमों से रौंदता
यह दौर प्रभुत्त्व को
ढो रहा था |
© अनीता सैनी