बिखर गया दर्द, दर्द का वह मंज़र लूट गया,
समय के सीने पर टांगती थी शिकायतों के बटन,
राह ताकते-ताकते वह बटन टूट गया |
मज़लूम हुई मासूमियत इस दौर की,
भटक गयी राह,
इंसान अच्छे दिनों के दरश को तरस गया,
इंसान अच्छे दिनों के दरश को तरस गया,
सुकूँ सजाता है मुसाफ़िर मंज़िल के मिल जाने पर,
वह मंज़िल की राह भटक गया |
दीन-सी हालत दयनीय हुई जनमानस की,
वो अब निर्बोध बन गया,
उम्मीद के टूटते तारों से पूछता है वक़्त जनाब,
हिचकियों का मतलब भूल गया |
दीन-सी हालत दयनीय हुई जनमानस की,
वो अब निर्बोध बन गया,
उम्मीद के टूटते तारों से पूछता है वक़्त जनाब,
हिचकियों का मतलब भूल गया |
बहका दिया उन चतुर वासिंदों ने उसे,
बौखलाकर वनमानुष-सा बदहवास हो हमें भूल गया,
हालात बद से बदतर हुए,
बदलाव की परिभाषा परोसते-परोसते,
लहू हमारा सोखता गया |
परवान चढ़ी न मोहब्बत खेतिहर की ,
जल गयी पराली और बिखर गयी आस्था खलिहान में,
खिलौना समझ खेलता रहा ज़ालिम,
डोर अब किसी और के हाथों में थमाता गया |
© अनीता सैनी
लहू हमारा सोखता गया |
परवान चढ़ी न मोहब्बत खेतिहर की ,
जल गयी पराली और बिखर गयी आस्था खलिहान में,
खिलौना समझ खेलता रहा ज़ालिम,
डोर अब किसी और के हाथों में थमाता गया |
© अनीता सैनी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 02 नवम्बर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय सांध्य दैनिक मुखरित मौन में मुझे स्थान देने हेतु.
हटाएंसादर
बहुत ही बेहतरीन रचना सखी 👌
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार बहना सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
वाह!!सखी अनीता जी ,क्या बात है!!बहुत खूब!
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार प्रिय शुभा बहन सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
सृजन के आयाम जब पीड़ा से छलनी पाँवों के छाले देखने लगें तो कविता को विराट नभ में उड़ने के लिये पंख मिल जाते हैं। देश,समाज, परिवार और व्यक्ति सबकी दशाओं और अपेक्षित लक्ष्य से अपेक्षाएँ जब आपस में संघर्ष करते हैं तो तल्ख़ियाँ नये दरीचे खोलकर विचार को परिष्कृत करने ताज़ा हवा में साँस लेती हुईं बस्तियों में फ़रोज़ाँ होती है कोई शमा।
जवाब देंहटाएंघुटनभरे माहौल में राहत के लिये संघर्ष का संदेश सुनाती विचारणीय रचना। बधाई एवं शुभकामनाएँ। लिखते रहिए।
सादर आभार आदरणीय सर अपनी रचना पर आपकी अद्भुत टिप्पणी पाकर अभिभूत हूँ. आपकी टिप्पणी ने रचना का भाव विस्तार कर दिया है.
हटाएंआपका समर्थन और सहयोग बनाये रखिएगा.
सादर आभार
विचारणीय प्रस्तुति ,बहुत ही सुंदर अभिव्यक्ति ,अनीता जी
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार प्रिय बहना सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
परवान चढ़ी न मोहब्बत खेतिहर की ,
जवाब देंहटाएंजल गयी पराली और बिखर गयी आस्था खलिहान में,
बेहतरीन।
सादर।
तहे दिल से आभार आदरणीय ज़फर जी सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार(०४ -११ -२०१९ ) को "जिंदगी इन दिनों, जीवन के अंदर, जीवन के बाहर"(चर्चा अंक
३५०९ ) पर भी होगी
विषमताओं के दौर में आम जनमानस के हृदय की ऊहापोह पर प्रभावी चिन्तन । सुन्दर सृजन अनीता जी ।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीया मीना दीदी रचना का मान अपनी ख़ूबसूरत प्रतिक्रिया के माध्यम से बढ़ाने और उत्साहवर्धन करने के लिये.
हटाएंपीड़ा की अबिव्यक्ति है क्षोभ बन के प्रगट हो रही है हर छंद में ...
जवाब देंहटाएंसुन्दर सर्जन ...
सादर आभार आदरणीय सर रचना पर मर्म स्पष्ट करती सुंदर मनोबल बढ़ाती टिप्पणी के लिये.
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