तल्ख़ियाँ तौल रहा तराज़ू से ज़माना,
नैतिकता क्षणभँगुर कर हसरतें हाँकता रहा,
समय फिर वही दौर दोहराने लगा,
हटा आँखों से वहम की पट्टी,
फ़रेब का शृंगार जगत् सदा करता रहा |
संस्कारों में है सुरक्षित आज की नारी,
एहसास यही वक़्त को लगता है भारी,
वर्जना को बेड़ियाँ बता वो तुड़वाता रहा,
संभाल अस्मिता अपनी ऐ वर्तमान की नारी |
स्वार्थ के लबादे में लिपटी है हर साँस,
धुन प्रगति की है उस पर सवार,
धुन प्रगति की है उस पर सवार,
मिलकर तो देख एक पल प्रकृति से,
किया कैसे है उसे नीस्त-नाबूद,
प्रपंच प्रखर हैं इस लुभावने सन्नाटे के,
इसके प्रभाव को परास्तकर,
तलाश स्थिर अस्तित्त्व अपना,
संघर्ष में छिपा है तुम्हारा वजूद |
किया कैसे है उसे नीस्त-नाबूद,
प्रपंच प्रखर हैं इस लुभावने सन्नाटे के,
इसके प्रभाव को परास्तकर,
तलाश स्थिर अस्तित्त्व अपना,
संघर्ष में छिपा है तुम्हारा वजूद |
आत्मबल से बढ़कर न कोई साथी,
राह सृजितकर हाथों में रख कर्म की पोथी ,
राह सृजितकर हाथों में रख कर्म की पोथी ,
मिली है जीवन में संस्कारों की जो विरासत,
नादानी में उसे न ग़ुमनाम कर,
नादानी में उसे न ग़ुमनाम कर,
मिला है जो अनमोल ख़ज़ाना संस्कृति से हमें ,
सहेज जीवन मूल्यों की समृद्ध सुन्दर थाती,
सहेज जीवन मूल्यों की समृद्ध सुन्दर थाती,
यों न सितारों की माँग कर |
©अनीता सैनी
आत्मबल से बढ़कर न कोई साथी,
जवाब देंहटाएंराह सृजित कर हाथों में
रख कर्म की पोथी.... ,
लाजवाब व अनुपम..बहुत सुन्दर सृजन अनीता जी ।
सस्नेह आभार आदरणीया मीना दीदी जी सुन्दर समीक्षा हेतु.
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बहुत सही
जवाब देंहटाएंबहुत कुछ बदला है लेकिन बहुत कुछ बदलना बाकी है अभी,,,,,,,,,,,,,,,
तहे दिल से आभार आदरणीया दीदी जी सुन्दर समीक्षा हेतु.
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जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (25-11-2019) को "कंस हो गये कृष्ण आज" (चर्चा अंक 3530) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
सहृदय आभार आदरणीय रवीन्दर जी सर चर्चामंच पर मुझे स्थान देने हेतु.
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आत्मबल से बढ़कर न कोई साथी,
जवाब देंहटाएंराह सृजितकर हाथों में रख कर्म की पोथी ,
मिली है जीवन में संस्कारों की जो विरासत,
नादानी में उसे न ग़ुमनाम कर,
मिला है जो अनमोल ख़ज़ाना संस्कृति से हमें ,
सहेज जीवन मूल्यों की समृद्ध सुन्दर थाती,
यों न सितारों की माँग कर ..
एक गहरा और सार्थक सन्देश है इन पंक्तियों में ... महनत से सब कुछ मिल जाता है पर विरासत को, मूल्यों को थाम के रखना आसन नहीं होता ... आत्मबल को सुरक्षित रखना अपने आप में बहुत साहस का काम है ...
अच्छी रचना आर सुन्दर सोच ...
सादर आभार आदरणीय सर मेरी रचना पर अपनी पसंद ज़ाहिर करने और सारगर्भित व्याख्या करते हुए रचना का मर्म स्पष्ट करने के लिये. आपका साथ यों ही बना रहे ब्लॉग पर.
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आत्मबल से बढ़कर न कोई साथी,
जवाब देंहटाएंराह सृजितकर हाथों में रख कर्म की पोथी ,
मिली है जीवन में संस्कारों की जो विरासत,
नादानी में उसे न ग़ुमनाम कर, बेहतरीन रचना सखी 👌👌
सस्नेह आभार बहना सुन्दर समीक्षा हेतु.
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वाह!प्रिय सखी ,बेहतरीन सृजन !सही है आत्मबल से बडा़ ओर कोई बल नहीं ।
जवाब देंहटाएंतहे दिल से आभार आदरणीया दीदी जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
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आत्मबल से बढ़कर न कोई साथी,
जवाब देंहटाएंराह सृजितकर हाथों में रख कर्म की पोथी ,
मिली है जीवन में संस्कारों की जो विरासत,
नादानी में उसे न ग़ुमनाम कर,
मिला है जो अनमोल ख़ज़ाना संस्कृति से हमें ,
सहेज जीवन मूल्यों की समृद्ध सुन्दर थाती,
यों न सितारों की माँग कर |
बहुत खूब अनीता !
आत्मबल से बड़ा कुछ नहीं, बेहतरीन रचना |
आपकी प्रतिक्रिया ब्लॉग पर पाकर आल्हादित हो जाती हूँ. आपका प्रोत्साहन ही मुझे बेहतर लेखन के लिये प्रेरित करता है और मेरे मन को संबल मिलता है.हमेशा याद करते रहना.
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गहन और सार्थक सृजन ।
जवाब देंहटाएंआज वर्जनाओं के साथ संस्कार भी छूट रहें हैं तेजी से आपकी रचना सच्चाई का दर्पण दिखा रही है, बहुत शसक्त सृजन अनिता आपका।
वर्जनाओं में बंधी नारी के पास जो था उसे गंवाकर अपनी क्षरित दशा से उधर्वमुखी हो उठने की स्पर्द्धा में वर्जनाओं को तोड़, पुरुष वर्ग की भांति नैसर्गिक कोमल भावों का त्याग कर। अपने को असंवेदनशील, पाषाण बनाती नारी, प्रकृति से विकृति ओर जाती नारी, जो प्राप्य है उसे, जो नहीं है उसे पाने के लिए गंवाती नारी।
पुरूष की छाया से निकल उसकी सहचरी नही प्रतिस्पर्धी बनती नारी।
वर्जनाओं और सँस्कारित जीवन के बीच एक संघर्ष हर दौर में अस्तित्त्व में रहा है. सादर आभार आदरणीय कुसुम दीदी मेरी रचना का मर्म स्पष्ट करते मेरा मनोबल बढ़ाने के लिये.
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