लम्बी कतार में बुर्क़ा पहने
सांत्वना की प्रतीक्षा में
लाचार बन खड़ी थीं |
देखते ही देखते
दूब के नाल-सी
बेबस-सी हुई कतार
और बढ़ रही थी |
समय का
हाल बहुत बुरा था
सन 1920 का था
अंतिम पड़ाव
सन 2020
सेहरा शीश पर लिये
गुमान में खड़ा था |
लालसाओं के तूफ़ान से
उजड़ा परिवेश
उजड़ा परिवेश
पश्चिमी सभ्यता के
क़दमों में पड़ा था |
मंहगाई की मार से
भूख-प्यास में तड़पता
आधुनिकता के नाम पर पाषाण
बन खड़ा था
आधुनिकता के नाम पर पाषाण
बन खड़ा था
शोषण का यह वही
नया दौर था |
नशे के
नाम पर नई करतूत
नौजवानों
के साथ खड़ी थी
स्त्रियों की
लाचारी दौड़ती नस-नस में
अबला बन
वह वहीं खड़ी थी |
बोरे में बंद क़ानून घुटन से
तिलमिलाता रहा
तिलमिलाता रहा
पहरे में कुछ
राजनेताओं की आत्मा
राजनीति का खड़ग लिये
भी खड़ी थी |
स्वतंत्रता सेनानियों की
प्रतिमाओं से
लहू के निकलते आँसू
पोंछने को
पोंछने को
चीर आँचल का
माँएँ तलाश रही थीं |
यथार्थ था यह स्वप्न
वज़्न हृदय सांसों पर
ढो रहा था
सृष्टि की पीड़ा से
प्रलय की आहट
निर्बल को क़दमों से रौंदता
निर्बल को क़दमों से रौंदता
यह दौर प्रभुत्त्व को
ढो रहा था |
© अनीता सैनी
बहुत सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय
हटाएंसादर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शनिवार 30 नवंबर 2019 को साझा की गई है......... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद! ,
बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय श्वेता दीदी जी
हटाएंसादर
सत्य
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय
हटाएंसादर
वाह! एक उत्कृष्ट श्रेणी की रचना जिसमें सौ वर्ष के समयांतराल में हुए सामाजिक,राजनीतिक,बौद्धिक और प्राकृतिक परिवर्तनों की प्रभावकारी झलक पाठक को अचंभित करती है। आधुनिक काव्य सौंदर्य का सुगढ़ शिल्प और कविता का भाव गांभीर्य बेजोड़ है। ऐसी कविताओं में चिंतन और इतिहास की गहरी समझ को समाहित करते हुए भाव जगाने का प्रयास सृजन की सार्थकता को सिद्ध करता है। इस प्रकार की रचनाओं का स्तर निस्संदेह उच्च कोटि में समाहित होता है। ऐसी रचनाओं का अन्य भाषाओं में भी अनुवाद होना चाहिए।
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत बधाई एवं शुभकामनाएँ अनीता जी ऐसे उत्कृष्ट सृजन के लिये। लिखते रहिए।
सादर आभार आदरणीय सर आपकी समीक्षा हमेशा ही हृदय को संबल प्रदान कर करती है भविष्य में अपने क़दम बढ़ाने के लिये प्रेरित करती है अपना आशीर्वाद हमेशा बनाये रखे.
हटाएंसादर
गंभीर चिन्तन से उठे हृदय के उद्गार जो समसामयिक दुर्घटनाओं
जवाब देंहटाएंपर दुख और क्षोभ व्यक्त कर रहे हैं । अत्यन्त सुन्दर सृजन ।
सादर आभार आदरणीया मीना दीदी जी. आपकी समीक्षा हमेशा ही मेरा मनोबल बढ़ाती है.तहे दिल आभार इस अपार स्नेह हेतु.
हटाएंसादर
अत्यंत सुंदर सृजन अनीता जी ,समय और हालत का सटीक वर्णन ,सादर स्नेह
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीया कामिनी दीदी.सुन्दर एवं उत्साहवर्धक
हटाएंसमीक्षा हेतु.
सादर
जवाब देंहटाएंसमय का
हाल बहुत बुरा था
1920 का था
अंतिम पड़ाव
2020
सेहरा सीस पर लिये
गुमान में खड़ा था |
बहुत ही लाजवाब समसामयिक अविस्मरणीय सृजन....
वाह!!!!
सादर आभार आदरणीया दीदी जी सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंआपका स्नेह एवं सानिध्य हमेशा यों ही बना रहे.
सादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (25-11-2019) को "गठबंधन की राजनीति" (चर्चा अंक 3537) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं….
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
सहृदय आभार आदरणीय चर्चामंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
हटाएंसादर
सार्थक एवं सटीक
जवाब देंहटाएंसहृदय आभार आदरणीय उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
बहुत खूब ...
जवाब देंहटाएंसदी का गहरा चितन करते स्वयं से प्रश्न और उत्तर खोजती है रचना ... एक आइना है, एक बिम्ब है जिसमें समाज का परिवर्तन खोजने का प्रयास है और अंत ... इस अंत का कोई अंत ही तो नहीं दिखाई देता ... समाज का स्वरुप कैसे, कब उर क्यों बदला शायद इसका जवाब खोजने का वक़्त नहीं है अब ... प्रहार जरूरी है ...
सादर आभार आदरणीय सुन्दर और सारगर्भित समीक्षा हेतु.
हटाएंअपना आशीर्वाद बनाये रखे.
सादर
सुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आपका
हटाएंसादर
सुन्दर प्रस्तुति अनिता जी
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीया दीदी जी सुन्दर समीक्षा हेतु.
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