सन २०१९ की,
अगहन की ठंड से जूझता,
दूसरे पखवाड़े का अंतिम दिन,
पूर्णिमा की शुभ्र चाँदनी में डूबा,
धीरे-धीरे सुबक रहा था |
पूर्णिमा की शुभ्र चाँदनी में डूबा,
धीरे-धीरे सुबक रहा था |
हिंद देश को डस रहा था,
नफ़रतों का दंश,
नफ़रतों का दंश,
प्रगति की उड़ान से जनमानस के,
फड़फड़ा रहे थे पँख |
नंगे पाँव दौड़ रही थी,
घर-घर में,
सम्पन्न दिखने की होड़,
घर-घर में,
सम्पन्न दिखने की होड़,
कुचलती अपने ही पैर |
द्वेष अब दिलों में ही नहीं,
शब्दों में भी लगा था पनपने,
जातिवाद का खरपतवार,
बन्धुत्त्व की फ़सल के,
काटने लगा था पात-पात |
सही-ग़लत का तराज़ू,
टूट चुका था,
रसूखदारों के हाथों से,
रसूखदारों के हाथों से,
बदलता पानी आँख का,
तय करता था भाव बाज़ार का,
दिखावे के उसूल,
अब पिघलने लगे थे |
देखते ही देखते,
एक ओर जलने लगा था,
लाचारी की लपटों में
देश का मज़दूर तबक़ा,
वहीं जल रहा था
गाँव का वह किसान,
देश का मज़दूर तबक़ा,
वहीं जल रहा था
गाँव का वह किसान,
जिसका बह गया
सब कुछ पानी में,
सब कुछ पानी में,
या फिर कहूँ वह खेतिहर
जिसने बुद्धिजीवियों,
जिसने बुद्धिजीवियों,
की तरह कभी ,
गढ़ी ही नहीं थी अपनी हस्ती,
ज़माने को परोसने के लिये,
ज़माने को परोसने के लिये,
या कभी मिट्टी से
जिसने पूछी ही नहीं,
अपनी पहचान,
जिसने पूछी ही नहीं,
अपनी पहचान,
और न ही मिट्टी ने कभी,
कष्ट उठया उससे पूछने का |
कष्ट उठया उससे पूछने का |
आज उन्हें ही,
बाँटी जा रही थी पहचान,
ज़मीन-जाएदाद के एवज़ में,
या कहूँ
पेट की भूख के बदले में,
पेट की भूख के बदले में,
ख़रीद रहे थे
वे भी ख़ुशी-ख़ुशी,
वे भी ख़ुशी-ख़ुशी,
पहचान अपनी-अपनी,
फिर अगली,
बारिश में बहाने के लिये |
बारिश में बहाने के लिये |
© अनीता सैनी
बहुत सुन्दर और सार्थक
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय
हटाएंसादर
.. मजलूमों की दर्द की आंखों देखी आपने बयानी कर दी कुछ ऐसा महसूस हो रहा है,
जवाब देंहटाएं"कभी मिट्टी से जिसने
पूछी ही नहीं अपनी पहचान
और न ही मिट्टी ने उससे
इतनी सार्थक पंक्तियां मैंने आज तक नहीं पढ़ी सच कहा एक किसान कब पूछता है अपनी पहचान मिट्टी से ना ही मिट्टी उसे कुछ पूछती है वह अपने आप को सौंप देती है उस किसान के हाथों करो मेरा दोहन उगाओ जो भी तुम कुछ चाहते हो
यह अजीब विडंबना है कि देश के अन्नदाता से ही उनकी पहचान पूछी जा रही है... बहुत ही सार्थक लेखनी बधाई आपको इतनी अच्छी प्रभावशाली रचना के लिए।
प्रिय अनु सुन्दर और सारर्भित समीक्षा हेतु तहे दिल से आभार.
हटाएंसादर स्नेह
कविता वही उत्तम है जो मानवीय संवेदना के विभिन्न आयामों को समेटते हुए जीवन के अँधेरे कोनों पर प्रकाश डाले साथ ही अमानवीय उपक्रम का प्रतिरोध मुखर होकर करे.
जवाब देंहटाएंप्रस्तुत रचना में समाज का विकृत चेहरा मानवता के पुनीत मरहम से राहत का एहसास देते हुए दुरुस्त करने का सराहनीय प्रयास किया गया है.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
सादर नमन आदरणीय रवीन्द्र जी सर हमेशा की तरह रचना का मर्म स्पष्ट करती सुन्दर और सारगर्भित समीक्षा हेतु.
हटाएंआपका आशीर्वाद यों ही बना रहे.
सादर
जवाब देंहटाएंजी नमस्ते,
आपकी लिखी रचना शुक्रवार १३ दिसंबर २०१९ के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय श्वेता दीदी पांच लिंकों में मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
हटाएंसादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (13 -12-2019 ) को " प्याज बिना स्वाद कहां रे ! "(चर्चा अंक-3548) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का
महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
आप भी सादर आमंत्रित है
….
अनीता लागुरी"अनु"
बहुत बहुत शुक्रिया प्रिय अनु चर्चामंच पर मेरी प्रस्तुति को स्थान देने हेतु.
हटाएंसादर
बहुत उम्दा
जवाब देंहटाएंबेहतरीन अभिव्यक्ति
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
सही-ग़लत का तराज़ू,
हटाएंटूट चुका था,
रसूखदारों के हाथों से,
बदलता पानी आँख का,
तय करता था भाव बाज़ार का,
- बड़ी विषम स्थिति है,इन्सान समझना ही चाहता मानने की कौन कहे!
सुन्दर समीक्षा हेतु बहुत बहुत आभार आदरणीया
हटाएंसादर
बहुत सुंदर और सार्थक सृजन बहना 👌
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार आदरणीय दीदी जी.
हटाएंसादर
द्वेष अब दिलों में ही नहीं,
जवाब देंहटाएंशब्दों में भी लगा था पनपने,
सही-ग़लत का तराज़ू,
टूट चुका था,
रसूखदारों के हाथों से,
वाह!!!
बहुत ही सुन्दर सार्थक चिन्तनपरक उत्कृष्ट सृजन हेतु बहुत बहुत बधाई अनीता जी !
सादर आभार आदरणीयa सुधा दीदी जी सुन्दर एवं सारगर्भित समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
मजदूर किसान ... इन सब की बुद्धिजीवी कब सोचता है ...
जवाब देंहटाएंअपने खुद के तय मानदंडों के आगे सब बेकार होते हैं उनके लिए ... ये नै पहचान भी यही लोग देते हैं अपने अपने फायदे के लिए ... शब्द हमेशा द्वेष के रचे जाते हैं अपना मन का करने के लिए ... चिंतन करते हुए आपके भाव ...
सादर आभार आदरणीय दिगंबर नासवा जी रचना का मर्म स्पष्ट करती सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर