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मंगलवार, दिसंबर 31

चाँद सितारों से पूछती हूँ





चाँद सितारों से पूछती हूँ हाल-ए-दिल,  
ज़िंदा जल रहे हो क्यों परवाने की तरह !
तड़प प्रीत की संबल उजाला तो नहीं, 
क्यों थकान मायूसी की तुम पर आती नहीं। 

हार-जीत का इसे न खेल समझो,  
अबूझ पहेली बन गयी है ज़िंदगी, 
शमा-सी जल रही हैं साँसें सफ़र में,  
उम्मीद की सूरत नज़र आती  नहीं। 

शोहरत में शुमार होती हैं ख़ुशियाँ, 

क्यों चैन एक पल तुम्हें  आता नहीं, 
मुस्कुरा रहे हो इस तरह क्या तुम्हें,  
 अपनों की याद किसी बात पर आती नहीं। 

जिस पड़ाव पर चल रही है ज़िंदगी,  

उस डगर पर साँझ का छोर नज़र आता नहीं, 
अपनों में भी अपनेपन की न महक मिलती, 
 प्रभात में भी उजियारे की ख़बर आती नहीं।  

©अनीता सैनी 

18 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीया नितु जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

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  2. चाँद सितारों से बहुत अच्छी गुफ्तगू ...संवेदनशील हृदय की यही तो विशेषता है ..प्रकृति का मानवीकरण वह उस से भी मैत्री कर लेता है ।

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय मीना दीदी जी सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर

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  3. विरोधाभास हो गई है जिंदगी ।
    अब जीने में भी जीने का मजा आता नहीं।
    बहुत सुंदर सृजन।

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीया कुसुम दीदी जी इस अपार स्नेह के लिये. आपका आशीर्वाद यों ही बना रहे.
      सादर

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  4. आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (01-01-2020) को   "नववर्ष 2020  की हार्दिक शुभकामनाएँ"    (चर्चा अंक-3567)    पर भी होगी। 
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
     --
    नव वर्ष 2020 की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'  

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    उत्तर
    1. सहृदय आभार आदरणीय मेरी रचना को चर्चमंच पर स्थान देने हेतु.
      प्रणाम

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  5. सुगढ़ सरल सरस सृजन जो पाठक को अनेक आरोह-अवरोह के साथ भावों के सफ़र पर ले जाता है. सरलता में भी अदभुत शक्ति है. नाज़ुक जज़्बात का ख़ूबसूरत मुज़ाहिरा.
    सुंदर अभिव्यक्ति.

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय रचना का मर्म स्पष्ट करती सारगर्भित समीक्षा हेतु. अपना आशीर्वाद यों ही बनाये रखे.
      सादर

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  6. नए साल में इतनी निराशा क्यों अनीता?
    कुंदनलाल सहगल का गीत -
    करूं क्या, आस, निरास भई !
    क्या बहुत बार सुन लिया?

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    उत्तर
    1. अमर गीत है सर. समय बदलता रहता है एहसास वही रहते हैं.सादर आभार

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  7. जिस पड़ाव पर चल रही है ज़िंदगी,
    उस डगर पर साँझ का छोर नज़र आता नहीं,
    अपनों में भी अपनेपन की न महक मिलती,
    प्रभात में भी उजियारे की ख़बर आती नहीं

    धुंध छटने तक धैर्य गर धारण करेंं
    प्रभात है उजियारा होना तो लाजिमी है
    बहुत ही खूबसूरती से मन के द्वंद और एहसासातों को रचनाबद्ध किया है
    वाह!!!

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीया सुधा दीदी जी अपनेपन से नवाज़ी सुन्दर और मोहक समीक्षा हेतु. अपना स्नेह और आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर

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