चंद्रभानु को विभास का मूल्य बता,
तिमिर को राह दिखा रहे,
खारे मोतियों को थामे अँजुरी में,
परोपकार का हार पिरो रहे |
ज़माने का जतन नहीं,
कांस के खिले फूल फुसफुसा रहे,
मिलेंगे कँबल दान में,
इस बार ठंड को वे यों समझा रहे |
शलभ-सी प्रीत पिरोये हृदय में,
ऊँघती तड़प कलिकाल में मुस्कुरायी,
उम्मीद नयनों में ठहर,चराग़ जलेंगे,
पवन से यों गुस्ताख़ियाँ जता रहे |
नदी के तटबंध अधीर मन से सुगबुगाये,
बदली जो राह उसी राह पर थर्राये,
शायद उद्गम मेरा मोड़ने अब,
नये ठेकेदार धीर मन से आ रहे |
चीरती हवा पीड़ा और पराजय को ,
मिथ्या-तृप्ति,भटकन समेटे समय को कचोटती रही,
बियाबान में ठंड के थपेड़ो से,
ठिठुरते कांस अस्तित्त्व अपना जता रहे |
©अनीता सैनी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज शुक्रवार 06 दिसम्बर 2019 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंबहुत-बहुत शुक्रिया आदरणीय
हटाएंसादर
शुद्ध हिन्दी की शानदार पंक्तियाँ।
जवाब देंहटाएंनिशब्द हूँ आदरणीय आपकी सुन्दर समीक्षा से बहुत-बहुत शुक्रिया आपका
हटाएंसादर
नके तटबंध अधीर मन से सुगबुगाये,
जवाब देंहटाएंबदली जो राह उसी राह पर झगड़ते रहे,
शायद उद्गम मेरा मोड़ने अब,
नये ठेकेदार धीर मन से आ रहे
नये जीवनदर्शन को समेटे मौलिक लेखन प्रिय अनीता | सस्नेह शुभकामनायें और बधाई ||
सादर आभार आदरणीया रेणु दीदी जी सुन्दर और सारगर्भित समीक्षा हेतु. आपका स्नेह और सानिध्य यों ही बना रहे.
हटाएंसादर
बहुत ही अच्छी कविता |आपका हार्दिक आभार
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय
हटाएंज़माने का जतन नहीं,
जवाब देंहटाएंकांस के खिले फूल फुसफुसा रहे,
मिलेंगे कँबल दान में,
इस बार ठंड को वे यों समझा रहे |बहुत सुंदर अभिव्यक्ति
सस्नेह आभार आदरणीया दी जी
हटाएंसादर
वाहः लाजवाब
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय
हटाएंसादर
तहे दिल से आभार अनुज उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
जवाब देंहटाएंसादर स्नेह