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मंगलवार, दिसंबर 31

चाँद सितारों से पूछती हूँ





चाँद सितारों से पूछती हूँ हाल-ए-दिल,  
ज़िंदा जल रहे हो क्यों परवाने की तरह !
तड़प प्रीत की संबल उजाला तो नहीं, 
क्यों थकान मायूसी की तुम पर आती नहीं। 

हार-जीत का इसे न खेल समझो,  
अबूझ पहेली बन गयी है ज़िंदगी, 
शमा-सी जल रही हैं साँसें सफ़र में,  
उम्मीद की सूरत नज़र आती  नहीं। 

शोहरत में शुमार होती हैं ख़ुशियाँ, 

क्यों चैन एक पल तुम्हें  आता नहीं, 
मुस्कुरा रहे हो इस तरह क्या तुम्हें,  
 अपनों की याद किसी बात पर आती नहीं। 

जिस पड़ाव पर चल रही है ज़िंदगी,  

उस डगर पर साँझ का छोर नज़र आता नहीं, 
अपनों में भी अपनेपन की न महक मिलती, 
 प्रभात में भी उजियारे की ख़बर आती नहीं।  

©अनीता सैनी 

रविवार, दिसंबर 29

तुहिन-कण की अकुलाहट




 ओस की बूँदों ने अपनी असमंजसता, 
सस्नेह सजल भोर को सुनायी,  
रजत-कण के व्याकुल हृदय में कहाँ से,  
अवाँछित ज्वाला सुलग आयी ? 

जुगनू-सी चमकती थी चतुर्दिश,  
प्रीत की उज्ज्वल हीरों-सी कनियाँ,  
घास के घरोंदों पर रहती थीं बिखरीं,  
शबनम की मोतियों-सी लड़ियाँ |

निशा के अंतिम पहर की पाहुन बन,  
कभी नभ के तारों-सी जगमगायी, 
फूल-पत्तों की अँजुरी में विराजित, 
उपवन की शोभा सूर्याभा देख अकुलायी | 

वृक्ष की टहनियों से झाँकती पल-पल, 
प्रयत्नशील प्रभात के प्रथम पहर में मुस्कुरायी,  
तुहिन-कण की बूँदें मेरी हथेली में समा, 
सहर्ष स्वाभिमान से सृष्टि में यों हर्षायी |

©अनीता सैनी 

शनिवार, दिसंबर 28

मैं 2019 का परिवेश हूँ


मैं  2019 का परिवेश हूँ,  

मेरी अति लालसाओं ने,  

मेरा बर्बर स्वभाव  किया, 

परिवर्तित होने की राहें, 

परिवर्तन की चाह में, 

इतिहास के अनसुलझे, 

 प्रश्नों को रुप साकार दिया |


सुख-समृद्धि तलाशता हवाओं में, 

अतीत की यादों में झाँकता,   

बदलाव की ललित लहर लिये, 

 वीराने  हृदय में गीत बन्धुत्त्व के गा रहा | 


नासमझी ने नादानी में  डेरा 

 जनसंख्यावृद्धि ने डाल लिया, 

इच्छाएँ आँगन में बैठ गयीं, 

तभी दर्द ने दामन थाम लिया, 

साँसें पल-पल सिसक और सिहर  रहीं, 

कोढ़ी काया हुई अब मेरी, 

छल-कपट के फोड़े फूटे,  

हारती अर्थव्यवस्था का हाल बुरा,  

कुपोषण का प्रतिघात हुआ,  

मरहम मानवता का तलाशता मन मेरा, 

 देह दीन-सी कराह रही,  

वेदना का करुण मातम, 

दहलीज़ पर  मेरे  छा रहा |


 वर्चस्व की चाह में अंधा बन, 

 आधिपत्य की होड़ लगा रहा, 

प्रतिस्पर्धा में घुटती साँसें, 

छटपटाते मन का बुरा  हाल हुआ, 

विचारों पर चढ़ा चतुर्दिक, 

धूमिल धुंध का अँधा आवरण, 

मन के कोने में

 ठिठुरता भविष्य आवाज़ लगा रहा | 


सुखद एहसास की धूप खिलेगी, 

इसी आस में हर्षा मरहम अपने लगा रहा, 

सघन तिमिर को चीरकर विहान, 

 सपनों का ताज सजा,   

इसी उम्मीद में, मैं क़दम अपने बढ़ा रहा |


©अनीता सैनी 


शुक्रवार, दिसंबर 27

नाम औक़ात रख गया


                                
  स्वयं की सार्थकता सर्वोपरि,                                       
यही विकार हृदय को कलुषित कर गया, 
 प्रभाव की परिभाषा परिभाषित कर 
शब्दों में दृष्टिकोण को गढ़ते चले गये,  
प्रभुत्त्व के मद में डूबा यह दौर,   
विचारों की क्षीणता स्वयं के सीने में सजाये,   
अपने नज़रिये को औक़ात कह गये |

ज्ञान के गुणग्राही बहुतेरे मिले बाज़ार में,  
 अज्ञानता की ज़िंदगी आँखों में सिमट गयी,   
श्रम-स्वेद सीकर से थे लथपथ चेहरे, 
पाँव थे जिनके कंकड़ कुश कंटक से क्षत-विक्षत,  
सुरुर समाज का उभरा मेहनत को पूछते औक़ात रह गये | 

प्रीत के तलबगार हैं बहुत सृष्टि में,  
गुमान गुरुर का घऱ हृदय में कर गया    
नीम,पीपल,बरगद और बबूल के, 
गुण-स्वभाव के बखान हैं बहुत,   
भेदभाव का नासूर नयनों में  खटका,  
मानव  मानवीय मूल्यों को दरकिनार कर,  
दौलत और शोहरत में तलाशते औक़ात रह गये |

© अनीता सैनी 

बुधवार, दिसंबर 25

यीशु ईश्वर की सलोनी संतान



हे ! यीशु ईश्वर की सलोनी संतान को, 
मार्ग परमार्थ का पैगंबर बन दिखा,  
द्वेष में सुलगे न कमनीय काया मानव की, 
शीतल चाँदनी की वर्षा धरा पर करा देना |

बियाबान भूतल पर भ्रम में भटका, 
बदहवास बरबस टूट रहा इंसान,  
स्नेह की स्निग्ध धार बहा मन की कपट में, 
हे ! यीशु प्रबल पुष्प प्रेम के पनपा देना |

मर्म ममता का महके मोहक, 
दीप्ति धधके दिलों में दुआ की, 
 तम का साथी रहे न धरा पर, 
हे ! यीशु ऐसी रीत जगत में चला देना |

प्रभु प्रेम का पवित्र पाठ पढ़ा, 
मद मे डूबे मानुष को राह मानवता की दिखा, 
बैर-भाव हृदय से मिटा,   
हे ! यीशु जग में दीप ज्ञान का प्रज्ज्वलित कर देना |

© अनीता सैनी 

सोमवार, दिसंबर 23

धरती पुत्र



 खेत की मुँडेर पर बैठ शून्य में विलीन हो एक टक, 
उसाँस में उफ़नते दर्द को वे घूरते बहुत हैं,  
समस्याओं को चाहते हैं  क्षण में निगलना, 
सुख-समृद्धि को धरा पर वे टटोलते बहुत हैं  | 

अतिवृष्टि,ओलावृष्टि कहूँ पाले की पतली परत हो, 
आँखों में लिये लवणता 
जिव्हा से वे हालात को कोसते बहुत हैं,  
धरती-पुत्र,खेतिहर कहूँ या खलिहान के सौदागर, 
विधाता को प्रति पल पुकारते वे अभावों से जूझते बहुत हैं  |

मन नहीं है मलिन न दिमाग़ में कोई सीलन, 
ख़ुद से ख़ुद की बातें करते ख़ुद्दारी को वे सजाते बहुत हैं, 
शान की पगड़ी पहनते हैं शीश पर, सूर्य का तेज़ ही है  वे, 
गिरगिट नेताओं से न बदलते रंग इसी रंग को पहचानते बहुत हैं | 

अन्नदाता की अनहोनी ही है छिपाता पेट की भूख है, 
बुद्धि के ख़ज़ांची उसी भूख से कमाते बहुत हैं, 
दम तोड़ता शिक्षा का स्तर तलहटी को छूता है,   
फिर भी डार्विन के स्वस्थतम उत्तरजीविता के सिद्धांत को 
ज़माना आज आजमाता बहुत है  |

©अनीता सैनी

शनिवार, दिसंबर 21

समझ फुसफुसा रही है




समझ सभी की समझ से फुसफुसा रही है, 
किसी की ज़्यादा किसी की कम दौड़ लगा रही है, 
हदों के पार ताकती कुछ तो बुदबुदा रही है, 
झुरमुट बना कभी झाँकती दरीचे से, 
कभी ख़ुद को महफूज़कर रही है |

सन्नाटें संग दौड़ती मनगढंत कहानी सुना रही है,  
सुने-सुनाये को दोहराती चीख़ती जा रही है,
समझ ही है जिसे समझ का अभाव समझा रही है,  
  सही क्या है ग़लत क्या है अनुमान पर थिरकती,  
हर एक के दिमाग़ का फ़ितूर बन,  
न चाहते हुए दंगों का हिस्सा बन रही  है |

ज़ुबाँ से ज़िंदगियों को ज़िंदा निगल रही है,
शब्दों के जहां में शब्दों से शब्दों के बाण चला रही है,  
जागरुकता का यह कैसा अभियान चला रही  है, 
हृदय पर आक्रोश का मचलता कैसा सैलाब है, 
खेल किसी का समझ से खेल कोई रहा है,  
तलाश रहा मन कहाँ शांति की मशाल है | 

 ज़माने को प्रभुत्त्व की यह कैसी ख़ुमारी चढ़ी है,
वक़्त को मेरे ईश्वर यह हुआ क्या है,
 इंसान अब इंसान नहीं धर्म का दरोगा बन गया है, 
मानवीय सिद्धांतों को दरकिनार कर,
क्यों स्वयं को विराजमान कर ख़ुदा बन गया है |

 © अनीता सैनी 

बुधवार, दिसंबर 18

अवतरित हुआ है धरा पर


                                                
 बदलते परिवेश में द्वेष के झुरमुट से, 
अवतरित हुआ है धरा पर द्वेष के लिवास में 
 एक सुडोल और कमनीय काय प्राणी,
 कामनाओं की कोख में नहीं कुलबुलाया,
पनपा है भविष्य की लालसामय अंधगुफाओं से,
पथभ्रष्ट,आत्महारा,आत्मकेन्द्रित,
हृदय है जिसका विगलित |

स्वर्णिम आभा-सा दमकता दुस्साहस, 
लोकतंत्र में भंजक-काष्ठवत-सा लिये स्वरुप,  
जिजीविषा की उत्कंठा से अपदस्थ, 
कालचक्र  पर प्रभुत्त्व की करता वह पुकार,  
दमित इच्छाओं को पोषितकर, 
वर्चस्व को समेटने में अहर्निश है वह मग्न,    
वक़्त की धुँध में धँसाता कर्म का धुँधला अतीत,  
स्वयं को कर परिष्कृत |


तीक्ष्ण बुद्धि के साथ लिये है,
 तंज़ के तेज़ का एक सुनहरा हथियार,
राम-रहीम-सा लिये है मुखौटा मुख पर, 
रावण-तैमूर का चिरकाल से,
बन बैठा  है मुँहबोला बेटा,
जिसकी स्थितियाँ,मनोवृत्तियाँ,
आत्मा हुई हैं  विकृत |


अराजक तिमिर के साथ,
आत्मसात की है जिसने, 
आत्मसुख की भावना प्रबल,
अग्निवर्णी परोपकार का भाव, 
दिल में नहीं धड़कता स्वार्थ के साथ,
 झलकता है कभी-कभी,
हर साँस में उड़ती धूल 
बनाती है ग़ुबार बेपरवाही का 
लिये अतृप्त तृष्णा कभी न होने के लिये निवृत्त |


 © अनीता सैनी

सोमवार, दिसंबर 16

उन्हें भी याद अपनों की आयी होगी



दर्द ३९०० जाँबाज़ शहीद जवानों का
सीने में उभर आया
संजीदा साये सिहर उठे होंगे उनके भी
 मौजूदा हालात देख देश के

शिथिल शब्दों में हुई होगी
 गहमागहमी उनके दरमियाँ भी
 ख़ामोशी भी उनकी 
 संजीदगी से बोल उठी होगी 
क्यों किया तकल्लुफ़ चीख़ते 
सन्नाटे ने
क्यों सुनाया संदेश सर्द हवाओं ने
यही एहसासात 
साँसों में फिर जी उठे होंगे उनके भी

डूब गयी होंगी आयरिस आँखों के
खारे पानी के दर्दीले दरिया में
सिसकियों ने भी न दिया होगा साथ उनका
रुह की रुह भी तड़प-तड़पकर रोयी होगी

कुछ सुलगते सवालात जज़्बात में
बिन बुलाये पाहुन बन पहुँचे होंगे उनके भी
एक बार उन्हें भी
शायद याद अपनों की सतायी होगी
और कुछ नहीं कलेजे के टुकड़ों की
ख़ैरियत की फ़रियाद
उस ख़ुदा से अनजाने में की होगी
जिस देश के लिये हुए क़ुर्बान
उस देश की ऐसी हालत देख 
वे अपने बलिदान पर क्षुब्ध हुए होंगे | 

© अनीता सैनी 

शनिवार, दिसंबर 14

माजरा क्या है ज़रा देख तो लो




 पाखी के अंदेशे पर दर्ज़ हुआ है एहसासनामा,
 बहेलिया का गुनाह क्या है ज़रा देख तो लो,
महफ़ूज़ मुसीबतों से कर रहा परिंदों को,
उदारता के तर्क का माजरा क्या है ज़रा देख तो लो | 

बेहतर हुए हैं कि नहीं हालात चमन के,
  अर्ज़ यही है अमराइयों से ज़रा पूछ तो लो,
नफ़रतों के तंज़ कसे तो होंगे दिलों पर, 
हर्ज क्या है आईना ज़रा देख तो लो |  

हकीम बन इलाज को उतावला है ज़माना,
मर्ज़ क्या है माहौल से  ज़रा पूछ  तो लो, 
ऐब नहीं है हवाओं में नमी का होना,
 तर्ज़ क्या है आँखों में ज़रा झाँक तो लो |  

 ज़ुल्म की हदें पार की तो होंगी,
कर्ज़  मिट्टी का यों ही दफ़नाया होगा
पलट समय की तह  को ज़रा देख तो लो, 
 हालात बद से बदतर हुए क्यों, 
कुछ क़दम जुर्म  के साथ चले  तो होंगे,   
फ़र्ज़ क्या है गिरेबां में ज़रा  झाँक तो लो | 

अनीता सैनी 

गुरुवार, दिसंबर 12

बाँटी जा रही थी पहचान उन्हें



सन २०१९ की, 
अगहन की ठंड से जूझता, 
दूसरे पखवाड़े का अंतिम दिन, 
 पूर्णिमा की शुभ्र चाँदनी में डूबा,  
धीरे-धीरे सुबक रहा था |

हिंद देश को डस रहा था, 
नफ़रतों का दंश, 
 प्रगति की उड़ान से जनमानस के,  
फड़फड़ा रहे थे पँख |

  नंगे पाँव दौड़ रही थी, 
 घर-घर में, 
सम्पन्न दिखने की होड़,   
कुचलती अपने ही पैर |

द्वेष अब दिलों में ही नहीं, 
शब्दों में भी लगा था पनपने, 
जातिवाद का खरपतवार,  
बन्धुत्त्व की फ़सल के, 
 काटने लगा था पात-पात |

सही-ग़लत का तराज़ू, 
टूट चुका था, 
रसूखदारों के हाथों से,   
 बदलता पानी आँख का, 
 तय करता था भाव बाज़ार का,   
 दिखावे के उसूल,  
अब पिघलने लगे थे |

देखते ही देखते, 
एक ओर जलने लगा  था, 
लाचारी की लपटों में 
देश का मज़दूर तबक़ा,  
वहीं जल रहा था 
गाँव का वह किसान,  
जिसका बह गया 
सब कुछ पानी में, 
या फिर कहूँ वह खेतिहर 
जिसने बुद्धिजीवियों, 
की तरह कभी , 
गढ़ी ही नहीं थी अपनी हस्ती,  
ज़माने को परोसने के लिये, 
  या कभी मिट्टी से 
जिसने पूछी ही नहीं,  
अपनी पहचान, 
और न ही  मिट्टी ने कभी, 
कष्ट उठया उससे पूछने का |

आज उन्हें ही, 
  बाँटी जा रही थी पहचान,  
ज़मीन-जाएदाद के एवज़ में, 
या कहूँ 
पेट की भूख के बदले में, 
  ख़रीद रहे थे 
वे भी ख़ुशी-ख़ुशी,  
 पहचान अपनी-अपनी, 
फिर अगली, 
बारिश में बहाने के लिये |

© अनीता सैनी 

मंगलवार, दिसंबर 10

सर्द हवाएँ



सर्द हवाएँ चली मंगलबेला में,  
 ओस से आँचल सजाने को,   
ललिता-सी लहरायीं निशा संग, 
शीतल चाँदनी छिटकाने को |

समेटे थी यौवन चिरकाल से, 
 खिला कुँज शेफालिका-सा,  
 झूल रही झूला नील गगन में, 
ख़ुशनुमा फुहार बरसाने को |

पुनीत-सी पीर जगा जनमानस में, 
उलीचती अंतरमन के आँगन को,   
ठहरी एक पल ठिठुरते पात पर, 
भूला-बिसरा कल दर्शाने  को |

कथा-व्यथा छिपा हृदय में,   
ज़िक्र ज़ेहन में जब यह दोहराया,  
   परदेशी पाखी लौटे  देश में,   
कुछ कोमल एहसास चुराने को |

नेह-गेह का उमड़ा शीतल झोंका,   
किसलय-सी प्रीत  पनपाने को, 
 लोक की मरजाद ठहरा पलकों पर, 
 थाह शीतलता की जताने को, 
सर्द हवाएँ चली मंगलबेला में,   
 ओस से आँचल सजाने को |

© अनीता सैनी 

रविवार, दिसंबर 8

सुनो प्रिये !



सुनो प्रिये !
तुम यों ही मुस्कुराते रहना 
बन्धुत्त्व का गान 
  गुनगुनाते रहना तुम अहर्निश 
 मिटाना न मन की सादगी 
चमन में बहार बन खिलखिलाते रहना 
प्रेम दीप हृदय में 
ढलती साँझ तुम यों ही जलाते रहना, 

जला 
जीवन में ज्योति  प्रीत की 
मैं अंतिम 
साँस तक धधकूँगी 
निर्वहन
 करुँगी दायित्व तुम्हारे 
कुंठित समाज की कुंठा सहूँगी 
शब्द-बाण से न आहत 
अपने मन को करुँगी
अडिग रहूँगी   
 ताड़ के पेड़-सी 
वह स्वाभिमान है मेरा 
तुम 
ग़ुरुर का ग़ुबार न समझना, 

सुनो प्रिये !
तुम समझ से न समझाना
 बुद्धि को अपनी 
तुम नासमझ रहना 
बदल रही है हवा देश की 
तुम सीने पर 
फ़सल राजनीति की 
न लहराना,  

जब याद
 सताये अपनों की  
तुम वही 
प्रीत पहन लौट आना 
खटकाना चौखट 
ख़ामोशी से 
हड़बड़ाहट न दहलीज़ पर दर्शाना 
खोयी  हैं  फ़ज़ाएँ स्वप्न में  
निशा को नींद से तुम न जगाना, 

सुनो प्रिये !
तुम विचलित मन न करना 
जल रहा  है 
  द्वेष में हृदय जनमानस का 
रोष  टपक रहा है आँखों से 
पड़े है ज़ुबा पर  
छाले तमाम ख़्वाहिशों के
तुम प्रीत की बातें न करना 
 ढो न पाओगे स्वार्थ का लवादा  
सुनो प्रिये !
तुम ख़ुद से ख़ुद की बातें करना |

©अनीता सैनी 

शुक्रवार, दिसंबर 6

शलभ-सी प्रीत



 चंद्रभानु को विभास का मूल्य बता, 
 तिमिर को राह दिखा रहे, 
खारे मोतियों को थामे अँजुरी में, 
परोपकार का हार पिरो रहे |

ज़माने का जतन नहीं, 
कांस के खिले फूल फुसफुसा रहे, 
मिलेंगे कँबल दान में, 
इस बार ठंड को वे यों समझा रहे |

शलभ-सी प्रीत पिरोये हृदय में, 
  ऊँघती तड़प कलिकाल में मुस्कुरायी,  
उम्मीद नयनों में ठहर,चराग़ जलेंगे, 
पवन से यों  गुस्ताख़ियाँ जता रहे |

नदी के तटबंध अधीर मन से सुगबुगाये, 
बदली जो राह उसी राह पर थर्राये,  
शायद उद्गम मेरा मोड़ने अब,  
 नये ठेकेदार धीर मन से आ रहे |

चीरती हवा पीड़ा और पराजय को  , 
मिथ्या-तृप्ति,भटकन समेटे समय को कचोटती रही, 
बियाबान में ठंड के थपेड़ो से, 
ठिठुरते कांस अस्तित्त्व अपना जता रहे |

©अनीता सैनी 

बुधवार, दिसंबर 4

देशकाल



पारिजात  के ऊँघते परिवेश में, 
लुढ़ककर कहाँ से दरिंदगी की सनक आ गयी, 
हृदय को बींधती भविष्य की किलकारी, 
 नागफ़नी के काँटों-सी कँटीली, 
साँसों में चुभने लगी |

पल रही अज्ञानता की पराकाष्ठा में, 
बेटियों की बर्बर नृशंस हत्याएँ, 
आदमज़ात का उफनता बहशीपन, 
मृत्यु मानवीय मूल्यों की होने लगी |

संस्कारों से लिपटे लुभावने, 
अमानवीय तत्त्वों का चढ़ा ख़ुमार, 
बिखरती भावनाओं को, 
पैरों से कुचलते, 
 दम  मैं  का  भरने लगे |

इस दौर का देशकाल,  
प्रगति की उड़ान से पर अपने कुतरने लगा, 
ग्लेशियर-से  पिघलते आदर्श, 
पतन के पूर्ण कगार पर बैठ, 
सुनामी-सी महत्वाकांक्षा में डूबने लगा |

© अनीता सैनी 

मंगलवार, दिसंबर 3

कादम्बिनी-कद कविता का



अनझिप पलकों की पतवार पर, 
अधबनी शून्य में झाँकती, 
 मन-मस्तिष्क को टटोलती,  
हृदय में सुगबुगाती सहचर्य-सी,  
कविता कादम्बिनी-कद अपना तलाशती है |

 तिमिरमय सूखे नयनों में, 
अधखिले स्वप्न सजा, 
जिजीविषा की सुरभि में सनी,  
अँजुरी में नूपुर-से खनकते,   
 अश्रुओं के झुरमुट में उलझी-सी, 
कविता कादम्बिनी-कद अपना तलाशती है |

सिसकती साँसों  की जालियों  में, 
नवाँकुर खिलाने को प्रतिपल रहते थे आतुर, 
अर्चना का सँबल बन सहलाती है, 
धरा के दामन में न धँसी, 
कविता कादम्बिनी-कद अपना तलाशती है |

प्रलय प्रतापी नहीं द्वेष की द्रोहाग्नि का, 
करुण भाव मूर्छित हुए विध्वंस में, 
फिर भी घने बादलों में पावस संग लहरायी, 
 ज्योत्सना की करुणा कली बन मुस्कुरायी, 
सृष्टि के आँचल में प्रस्फुटित हो, 
कविता कादम्बिनी-कद अपना तलाशती है|

© अनीता सैनी 

शनिवार, नवंबर 30

यथार्थ था यह स्वप्न



 घटनाएँ 
लम्बी कतार में बुर्क़ा पहने  
सांत्वना की  प्रतीक्षा में 
लाचार बन  खड़ी थीं | 

देखते ही देखते 
दूब के नाल-सी 
बेबस-सी हुई  कतार 
 और बढ़ रही थी |

समय का
 हाल बहुत बुरा था 
सन 1920 का था 
अंतिम पड़ाव 
सन 2020
 सेहरा शीश पर लिये 
 गुमान में खड़ा था |

लालसाओं के तूफ़ान से
 उजड़ा परिवेश 
पश्चिमी सभ्यता के 
क़दमों में पड़ा था |

मंहगाई की मार से 
भूख-प्यास में तड़पता 
आधुनिकता के नाम पर पाषाण 
बन खड़ा था 
शोषण का यह वही 
नया दौर था |

नशे के
 नाम पर नई करतूत 
नौजवानों 
के साथ खड़ी थी 
स्त्रियों की 
 लाचारी दौड़ती नस-नस में 
अबला बन 
वह वहीं खड़ी थी |

बोरे में बंद क़ानून घुटन से 
तिलमिलाता रहा 
पहरे में कुछ 
राजनेताओं की आत्मा 
राजनीति का खड़ग लिये 
भी  खड़ी थी |

स्वतंत्रता सेनानियों की 
प्रतिमाओं से 
 लहू के निकलते आँसू 
पोंछने को 
चीर आँचल का  
 माँएँ  तलाश रही थीं  | 

यथार्थ था यह स्वप्न 
वज़्न हृदय सांसों पर 
ढो  रहा था 
सृष्टि की पीड़ा से 
 प्रलय की  आहट 
निर्बल को क़दमों से रौंदता  
यह दौर प्रभुत्त्व को 
ढो  रहा था |

© अनीता सैनी 

शुक्रवार, नवंबर 29

यादें तुम्हारी



 यादें तुम्हारी, 
अनगिनत यादें ही यादें, 
 छिपाती हूँ, 
जिन्हें व्यस्तता के अरण्य में, 
 ख़ामोशी की पतली दीवार में, 
ओढ़ाती हूँ, 
उनपर भ्रम की झीनी चादर, 
 मुस्कुराहट सजा शब्दों पर, 
 अकेलेपन को बातों में, 
 फिर उलझा रह जाती हूँ  |


यकब-यक विरह के, 
उसी भयानक भँवर में डूब रह जाती हूँ, 
विकल हो उठता है सीपी-सा प्यासा हिय,  
फिर तुम्हारी प्रत्याशा में, 
क्षुब्ध मन करता है परिमार्जन यादों का,  
हाँकते हुए साँसों को, 
 डग जीवन के भरती हूँ |

परछाई-सी वह तुम्हारी, 
पहलू में बैठ, 
मुस्कुराहट का राज़ बताती है,  
सूनेपन के उन लम्हों में, 
वीणा की धुन-सा, 
 सुरम्य साज़ बजाती है |


बीनती हूँ  बिखरे एहसासात की, 
  गत-पाग-नूपुर-सी वे मणियाँ, 
अर्पितकर अरमानों की अमर सौग़ातें, 
 अतिरिक्त नहीं अन्य राह जीवन में, 
पैग़ाम यादों का मुस्कुराते हुये मैं सुनती हूँ |

© अनीता सैनी 

मंगलवार, नवंबर 26

बरगद की छाँव बन पालने होते हैं




  अल्हड़ आँधी का झोंका भी ठहराव में, 
शीतल पवन का साथी बन जाता है, 
  ग़ुबार डोलता है परिवेश में  
मुठ्ठी में छिपाता है आहत अहं के तंतु, 
बिखरकर वही द्वेष बन जाता है |

विचलित मन मज़बूरियाँ बिखेरता है, 
सिसकता है साँसों में जोश,  
मानव मस्तिस्क भरमाया-सा फिरता है, 
 छूटता  नहीं  मैं  का  साथ, 
क्षणिक हो जाते हैं उसमें  मदहोश, 
बाक़ी बचे पाषाण बन जाते हैं | 

गाँव-गाँव और शहर-शहर,  
 अपाहिज आशाओं का उड़ता शौक है, 
सयानी सियासत समझ से स्वप्न संजोती है, 
मरा आँख का पानी उसी पानी का, 
यह दोष बन जाता है |

दिलों पर हुकूमत तलाशता है, 
ख़्वाहिशों का पहला निवाला, 
न भूल जिगर पर राज वफ़ा का होता है, 
बरगद की छाँव बन पालने होते हैं,   
 अनगिनत सपनों  से  सजे संसार, 
तभी दुआ में प्रेम मुकम्मल होता है |

© अनीता सैनी 

रविवार, नवंबर 24

यों न सितारों की माँग कर



तल्ख़ियाँ तौल रहा तराज़ू से ज़माना,  
नैतिकता क्षणभँगुर कर हसरतें हाँकता रहा,    
 समय फिर वही दौर दोहराने लगा,  
हटा आँखों से  वहम की पट्टी,
 फ़रेब का शृंगार जगत् सदा करता रहा |

 संस्कारों में है सुरक्षित आज की नारी,  
 एहसास यही वक़्त को लगता है भारी,  
वर्जना को बेड़ियाँ बता वो तुड़वाता रहा,  
संभाल अस्मिता अपनी ऐ वर्तमान की नारी |

स्वार्थ के लबादे में लिपटी है  हर साँस,  
धुन प्रगति की है उस पर  सवार, 
मिलकर तो देख एक पल  प्रकृति से,
 किया कैसे है उसे नीस्त-नाबूद, 
प्रपंच प्रखर हैं इस लुभावने सन्नाटे के,
इसके प्रभाव को परास्तकर, 
तलाश स्थिर अस्तित्त्व अपना, 
संघर्ष में छिपा है तुम्हारा वजूद  |

आत्मबल से बढ़कर न कोई साथी, 
राह सृजितकर हाथों में रख कर्म की पोथी ,  
मिली है जीवन में संस्कारों की जो विरासत, 
 नादानी में उसे न ग़ुमनाम कर,  
मिला है जो अनमोल ख़ज़ाना संस्कृति से हमें ,
सहेज जीवन मूल्यों की समृद्ध सुन्दर थाती,   
यों न सितारों की माँग कर |

©अनीता सैनी 

शुक्रवार, नवंबर 22

दर्द सांभर झील का



साल-दर-साल हर्षित हृदय लिये  
आते हो तुम लाखों की तादाद में 
इस बार हुआ क्या ऐसा 
प्रवासी पक्षी तुम्हारी जान को 

शीत ऋतु में आकर मान मेरा बढ़ाते हो 
खिल उठाती है क़ुदरत जब चहचाहट तुम्हारी होती है 
ख़ुशी से हृदय मेरा फूला नहीं समाता है 
जब जल में मेरे आहट तुम्हारी होती है 

गर्वित हो उठती हूँ देखो !
तुम्हारे इस सम्मान पर 
अतिथि बन तुम आते हो
 आँगन में मेरे खिलती मीठी मुस्कान है 

नमक-सा नीर है मुठ्ठी में मेरे 
फिर भी तुम्हें  खींच ले आती हूँ 
 स्नेह कहूँ तुम्हारा इस मिट्टी से या 
सौभाग्य मेरा तुम्हें बुलाता है 

अतिथि सत्कार में थी न कोई कमी 
पलकें बिछाये बैठी थी 
आँचल में समेटे दाना-पानी 
पल-पल बाट तुम्हारी जोहती हूँ 

मिलना-बिछड़ना सिलसिला है यही 
प्रति वर्ष का 
तुम लौटोगे इसी उम्मीद में 
साँसों में आशाएँ सजोये रहती हूँ 
आगमन से तुम्हारे 

बच्चे भी मेरे 
  खाते पेटभर खाना है 
सैलानी जो इसी ऋतु में  
तुम्हें देखने आते हैं 

थक गये थे बटोही राह में 
सफ़र की लम्बी थकान से 
खाना नहीं मिला राह में 
राहगीर तुम्हें धरा की ठण्डी छाँव में 

रोग लगा था दिल में दयनीय 
दर्दभरे ये  आँसू  छलके कैसे  
 जानूँ  कैसे राज़ यह गहरा 
लम्बी ख़ामोशी का दिया क्यों पहरा 
आते ही आँचल में मेरे 

टीस उठी उर  में भारी 
ज़हर बता रहे जन जल को मेरे 
पलकों के पानी-सी लवणता है मुझमें
 ज़हर का दाग़ अब लगा है गहरा 
प्रवासी परिंदे  क्यों सोये  तुम चिरनिद्रा में ? 
डूब गयी मैं आत्मग्लानि और गहरी  कुंठा में  |

©अनीता सैनी