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रविवार, जनवरी 26

चौपाल में हुक़्क़े संग धुँआ में उठतीं बातें

                                         
                                  
बेचैनी में लिपटी-सी स्वयं को सबला कहती हैं,  
वे आधिपत्य की चाह में व्याकुल-व्याकुल रहती हैं, 
सुख-चैन गँवा घर का राहत की बातेंकर,  
वे प्रतिस्पर्धा की अंधी दौड़ में दौड़ा करती हैं। 

शिक्षित हो या अशिक्षित वाक शक्ति में श्रेष्ठ स्वयं को कह
 ख़ुद-ग़र्ज़ी की हुँकार भर शेरनी-सी दहाड़ा करतीं हैं,  
कमनीय काया का कोहराम मचाती जग में, 
कर्मों की दुहायी दे स्वयं को पल-पल छला करती हैं। 

सजग समझदार तर्कशील कहतीं ख़ुद को, 
वे अहर्निश जुगाली द्वेष की करती हैं, 
 मोह ममता छूटी मन से प्रीत की तलब में, 
वे परिभाषा सुख की नित नई गढ़ा करतीं हैं। 

इच्छाओं के पँख फैलाकर उड़ान सपनों की भरा करतीं हैं, 
वे बना स्वार्थ को  साथी स्वयं को छला करतीं हैं,   
स्वयं-सुख को धारण कर परिवार से विमुख हो, 
 दासी क्रोध की बन क़दमों से जीवन कुचला करतीं  हैं। 

घर-बाहर वे दौड़ लगातीं कँधे से कँधा मिलाकर चलतीं,  
सहतीं रहतीं जीवनपर्यन्त जीवन को उनके युग छला करते हैं,
हाल हुआ क्या नारी के नारीत्व का ठहाके लगा बातों की उलझन,
हुक़्क़े संग चौपाल में पुरुषार्थ को साध धुँआ में खोला करते हैं। 

©अनीता सैनी 

14 टिप्‍पणियां:

  1. आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज रविवार 26 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!

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    1. सहृदय आभार आदरणीया दीदी मंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
      सादर

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  2. सजग समझदार तर्कशील कहतीं ख़ुद को,
    वे अहर्निश जुगाली द्वेष की करती हैं

    यदि नारी सिर्फ इस एक दुर्गुण से मुक्त हो जाए, तो वह सर्वश्रेष्ठ हो जाए, सर्वशक्तिमान हो जाए।
    उसके इसी कमजोरी का लाभ पुरुष सदैव उठाता रहा है।
    आपकी विषय आधारित यह रचना सराहनीय है।

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    1. सादर आभार आदरणीय शशि भाई सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर

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  3. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (27-01-2020) को 'धुएँ के बादल' (चर्चा अंक- 3593) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ****
    रवीन्द्र सिंह यादव

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय चर्चामंच पर मेरी प्रस्तुति को स्थान देने हेतु.
      सादर

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  4. नारी-स्वच्छंदता पर पुरुषों के तीखे व्यंग्य बाण स्वाभाविक अभिव्यक्ति हैं क्योंकि पुरुषों को नारी का स्वतंत्र अस्तित्त्व कचोटता रहा है अतः पुरुष-सत्ता ने अनेक किंतु-परंतुओं से अलंकृत करते हुए दहलीज़ तक सीमित रहने की अनेक वर्जनाएँ स्त्री-ज़ात पर थोप दीं। कालांतर में स्त्री-विमर्श विश्वव्यापी हुआ तो ब्रिटेन जैसे देश में भी स्त्री-मताधिकार को स्वीकार किया गया। स्त्री-पुरुष को समान घंटों की मज़दूरी तक में भेदभाव किया गया। अब बदलते वक़्त में चौपाल पर हुक़्क़ा गुड़गुड़ाते पुरुषों को जो कोफ़्त हो रही है उसे शिद्दत से समझा जा सकता है।
    शानदार करारा व्यंग।

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    1. सादर आभार आदरणीय रचना का मर्म स्पष्ट करती सुन्दर सारगर्भित समीक्षा हेतु.अपना आशीर्वाद बनाएँ रखे.
      सादर

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  5. वाह क्या कहने है लाजवाब प्रस्तुती

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    1. सादर आभार आदरणीय उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर

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  6. उड़ान सपनों की भरा करतीं हैं, उम्दा लिखती है ।
    गणतंत्र दिवस की बधाई एवं हार्दिक शुभकामनाएँ.

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  7. लाजबाब... अभिव्यक्ति अनीता जी

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    1. सादर आभार आदरणीया कामिनी दी जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
      सादर स्नेह

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