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शनिवार, फ़रवरी 29

नागफनी



  

नितांत निर्जन नीरस 
सूखे अनमने 
विचार शून्य परिवेश में 
पनप जाती है नागफनी,  
जीवन की तपिश
 सहते हुए भी,  
मुस्कुरा उठती है, 
महक जाते हैं 
देह पर उसके भी,  
आशा के सुन्दर सुमन,  
स्नेह सानिध्य की, 
नमी से,  
रहती है वह भी सराबोर,  
मरु की धूल-धूसरित आँधी में, 
अनायास ही, 
 खिलखिला उठती है, 
अपने भीतर समेटे, 
 अथाह मानवीय मूल्यों का, 
 सघन सैलाब,  
बाँधती है शीतल पवन को,  
सौगंध अनुबंध के बँधन में,  
विश्वास का ग़ुबार, 
 लू की उलाहना, 
जड़ों को करती है और गहरी, 
जीवन जीने की ललक में,  
 पनप जाते है 
  काँटे कोमल देह पर

©अनीता सैनी 

शुक्रवार, फ़रवरी 28

चीर तिमिर की छाती.... नवगीत



चीर तिमिर की छाती को अब,  
सूरज उगने वाला है, 
हार मान क्यों बैठा राही,
 तम के बाद उजाला है

दूर नहीं है मंज़िल राही,
कुछ डग का खेल निराला है,
ढल जायेगी बोझिल रात्रि,
कर्म नश्वर नूतन उजाला है

बंजर में कुसुम कुमोद खिला, 
धरा ने संबल संभाला है,  
चीर तिमिर की छाती को अब,  
सूरज उगने वाला है

अंकुर प्रेम के हो पल्लवित, 
सृष्टि का करुण उजाला है, 
शरद चाँदनी हो आँगन में,
समय अनुराग निराला है

नमी बंधुत्त्व की हो मन में,
हृदय स्वप्न  गूँथी  माला है, 
चीर तिमिर की छाती को अब,  
सूरज उगने वाला है

©अनीता सैनी 

टूटे पंखों से लिख दूँ मैं... नवगीत


टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
बना लेखनी वह कविता।
पीर परायी धंरु हृदय पर,
छंद बहे रस की सरिता।

मर्मान्तक की पीड़ा लिख दूँ,
पूछ पवन संदेश बहे।
प्रीत लिखूँ छलकाते शशि को,
भानु-तपिश जो देख रहे,
जनमानस की हृदय वेदना,
अहं झूलती सृजन कहे।

पथ ईशान सारथी लिख दूँ,
उषा कलरव की सुनीता।
टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
बना लेखनी वह कविता।

पात-पात पर यथार्थ लिख दूँ,
सृष्टि-अश्रु बनकर बहती।
लेख विनाश लिखूँ तांडव पर,
मानस की करुणा कहती, 
उद्धार पतित पथ का लिख दूँ, 
भाव-विभाव जहाँ रहती।

बाल-बोध मन सुरभित लिख दूँ,
मिट्टी की गंध अनीता ।
टूटे पंखों से लिख दूँ मैं,
बना लेखनी वह कविता।

©अनीता सैनी 

बुधवार, फ़रवरी 26

बीज रोप दे बंजर में... नवगीत



बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यों कोई होश नहीं खोता,
अंशुमाली-सी ज्योति मन की,  
क्यों पीड़ा पथ में तू बोता।

मधुर भाव बहता जीवन में,
प्रीत प्रसून फिर नहीं झरता,
विरह वेदना लिखे लेखनी,
यों पाखी प्रेम नहीं मरता।

नभ-नूर बिछुड़ी तारिकाएँ, 
 व्याकुल होकर पुष्कर रोता, 
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यों कोई होश नहीं खोता।

कर्म कसौटी बाँध कमर से,
यों पथिक मक़ाम नहीं तकता,
पात-पात पर सजा समर्पण,
पारिजात क्षिति पर है खिलता।

कोमल भाव महक फूलों-सी,
मानव जीवन में  है  जोता, 
बीज रोप दे बंजर में कुछ,
यों कोई होश नहीं खोता।

©अनीता सैनी 

मंगलवार, फ़रवरी 25

वर्तमान हूँ मैं


शून्य नभ से झाँकते तारों की पीड़ा,
मूक स्मृतियों में सिसकता खंडहर हूँ मैं, 
हिंद-हृदय सजाता अश्रुमाला आज, 
आलोक जगत में धधकते प्राण,
चुप्पी साधे बिखरता वर्तमान हूँ मैं

कलुषित सौंदर्य,नहीं विचार सापेक्ष,
जटिलताओं में झूलता भावबोध हूँ मैं,
उत्थान की अभिलाषा अवनति की ग्लानि,
कल का अदृश्य वज्र मैं, मैं ज्वलित हूँ, 
एक पल ठहर प्रस्थान जलता वर्तमान हूँ मैं

अवसान की दुर्भावनाएँ व्याप्त अकर्मण्डयता, 
मृत्यु को प्राप्त मूल्य,क्षुद्रता ढोता अभिशाप मैं, 
अमरता का मान गढ़ने पुरुष मर्त्य बना आज, 
अनिमेष देखता अद्वैत लीन मैं,चिरध्यान में मैं, 
विमुख-उन्मुख तल्लीनता उठता वर्तमान हूँ मैं

©अनीता सैनी 

शुक्रवार, फ़रवरी 21

मेहंदी के मोहक पात



 शुभ्र-लालिमा को लपेटे देह से, 
भटकते दिन का ढलता पहर, 
महताब संग बढ़ते पदचाप, 
 देख जीवन में हर्षायी साँझ


शरद चाँदनी से उजले हाथों में, 
मेहंदी के मोहक उठाये पात , 
पुलकित हृदय से इठलायी, 
हर्षित फ़ज़ा से झूमी साँझ

कमल-पँखुड़ियों से कोमल, 
प्रीत रंग के महावर में डूबे पाँव, 
दहलीज़ पर उतर हुई उल्लासित,  
नयन अश्रु से धो मुस्कुरायी साँझ

©अनीता सैनी 

गुरुवार, फ़रवरी 20

गाजर घास / कांग्रेस घास


वे स्वतः ही पनप पल्लवित हो जाते हैं,

गंदे गलियारे मिट्टी के ढलान पर,

अधुनातन मानव-मन की बलवती हुई,  

अनंत अनवरत आकांक्षा की तरह ।


रेगिस्तान-वन खेत-खलिहान घर-द्वार, 

मानवीय अस्तित्त्व से जुड़ी बुनियादी तहें, 

इंसानी साँसों को दूभर बनाते अगणित बीज, 

गाजर घास बन गयी है अब मानवता की खीझ।


विनाश-तंज़ प्रभुत्त्व का सुप्त-बोध लिये,

  सीमाहीन विस्तार की चपल चाह सीये,

सहज सभ्य शिष्ट जीवन की गरिमा नष्ट करने,

ढहाने सभ्यता की कटी-छँटी बाड़ सरीखी।


प्रकृति की आत्मचेतना का करता अंकन मानव, 

समाज में खरपतवार का अतिक्रमण-सा तनाव, 

चटक-चाँदनी सुदर्शन डील-डौल से नामकरण, 

विहँसती वसुंधरा पर मँडराते ख़तरों से उत्पन्न वेदना।


पथरीले पथ पर आषाढ़ की असह भभक लिये,

विकृत शुद्ध पवन परिवेश में है आच्छादित, 

बेचैन मानवता हुई पलायन करते मानव मूल्य,

अन्तःस्मित,अन्तःसंयत का सोखता भाव। 


©अनीता सैनी 

सोमवार, फ़रवरी 17

बरगद की आपातकालीन सभा



प्रदूषण के प्रचंड प्रकोप से ,  
दम तोड़ता देख धरा का धैर्य,  
 बरगद ने आपातकालिन सभा में,  
 आह्वान नीम-पीपल का किया। 

 ससम्मान सत्कार का ग़लीचा बिछा, 
बुज़ुर्ग बरगद ने दिया आसन प्रभाव का,  
विनम्र भाव से रखा तर्क अपना, 
बिखर रही क्यों शक्ति तुम्हारी,   
मानव को क्यों प्रकृति से अलगाव हुआ। 
  
मानव अलगाव की  करुण-कथा, 
 ज़ुबाँ से जताते व्यथा नीम-पीपल, 
 कटु-सत्य संग धर अधरों पर शब्दों को, 
पीले पत्तों-सा पतन मानव का दिखा रहे। 
  
शीशे की दीवारें शीतल हवा का स्वाँग, 
धन-दौलत को सुख जीवन का बता,  
प्रकृति से विमुख कृत्रिमता को पनाह, 
मानव कैमिकल का स्वाद चख़ रहा। 

 चिंतापरक गहन विषय पर्यावरण, 
अहं का भार बढ़ा मानव हृदय पर, 
लापरवाही गरल बोध दर्शाती, 
सजा का हो प्रवधान,  
वृक्षों की सभा में आवाज़ यह उठी। 

मन मस्तिष्क हुआ कुपोषित मानव का ,  
तन को सबक़ सिखायेगा प्रदूषण, 
प्रत्येक अंग में कीट बहुतेरे, 
आवंतों के सुझाव की प्रतीक्षा करे धरा। 

©अनीता सैनी 

शुक्रवार, फ़रवरी 14

पन्ना धाय के आँसू



पन्ना धाय तुम्हारे आँसुओं से भीगे,
 खुरदरे मोटे इतिहास के पन्ने, 
जिनमें सीलन मिलती है आज भी,
कर्तव्यनिष्ठा राष्ट्रप्रेम की


उदय सिंह क़िले के ठीक पीछे,
 झील में झिलमिलाता प्रतिबिम्ब त्याग का,
ओस की बूँदों-सा झरता वात्सल्य भाव,
पवन के झोंको संग फैलाती महक ममता की

ज़िक्र मिलता है ममत्व में सिमटी, 
तुम्हारे भीगे आँचल की मौन कोर का,  
 पुत्र की लोमहर्षक करुण-कथा का,  
  लोकगाथा  तुम्हारे अपूर्व बलिदान की

चित्तौड़ के क़िले की ऊँची सूनी दीवारों में,
गूँजता तुम्हारा कोमल कारुणिक रुदन,
 सिसकियों में बेटे चंदन की बहती पीड़ा,
 दिलाती याद अनूठे स्वामिभक्ति की

उनींदे स्वप्न में सतायी होगी याद,  
तुम्हें बेटे की किलकारी की,  
काटी होगी गहरी काली रात, 
तुमने अपने ही भाव दासत्व की

पराग-सा मधुमय फलता-फूलता,  
खिलखिलाते  महकते  उदयपुर संग,  
धाय माँ के दूध की ऋणी बन इतराती आज भी,    
अजर-अमर अजब दास्ताँ क़ुर्बानी की

©अनीता सैनी 

मंगलवार, फ़रवरी 11

सत्य क़ैद क्यों है?


तुम जूझ रहे हो स्वयं से, 
या उलझे हो,
भ्रम के मकड़जाल में,    
सात्विक अस्तित्त्व के,   
कठोर धरातल पर बैठे हो,  
या इंसान की देह पर, 
ज़िंदा लाश की तरह, 
यों ही लदे हो, 
या ढो रहे हो स्वयं को,
मर रही मानवता पर 
क्योंकि तुम सत्य हो
चेहरा अपना छिपाये हो, 
या बार-बार दम तोड़ते,
यथार्थ का सामर्थ्य हो, 
तलाशते हो पहचान,  
क्योंकि तुम सत्य हो
कभी रौंदे जाते हो,
रहस्य की तरह,  
अनगिनत अनचीह्नी, 
उठती आवाज़ो से, 
 किये जाते हो प्रभावहीन, 
असामयिक खोखले,
 उसूलों की अरदास पर,   
 चिल्ला नहीं सकते,
झूठ की तरह तुम, 
क्योंकि तुम स्वयं में,
पूर्णता का एहसास हो, 
फैल नहीं सकते,
 फ़रेब की तरह, 
क्योंकि तुम सत्य हो
 सूर्य की अनंत आभा की तरह

© अनीता सैनी 

शुक्रवार, फ़रवरी 7

प्रफुल्लित पदचाप



सोलह बसंत बीते,
 बाँधे चंचलता का साथ,   
आज सुनी ख़ुशियों की, 
प्रफुल्लित पदचाप,  
घर-आँगन में बिखरी यादें,  
महकाती बसंत बयार, 
 छौना मेरा यौवन की, 
दहलीज़ छूने को तैयार 

गगन में फैली चाँदनी-सा,
 शुभ्रतामय यश की लीये बहार, 
भानु-रश्मियों-सी कांति,
सुकून से सँवारे आँचल मेरा हर बार,
 काँटों भरा हो कठिन पथ, 
 दुआओं का मखमली साया मेरा,
दुलराएगा तुम्हें हिम्मत की,
मधुर निर्झर-सी रागिनी सुनाकर, 
स्नेह की बरसाये बरखा बहार 

तपोमय ज्योतिपुंज-सी रोशन,
 हो जीवन की राहें तुम्हारी चहुं ओर,
हृदय में प्यार का सागर ले हिलोरें, 
शिकायत को तरसे जग सारा, 
देश, समाज,परिवार,ममत्त्व मेरा, 
तुम्हारी ओर उम्मीदों का,
 स्वप्निल सुन्दर सँजोते है संसार, 
दामन भरना खुशयों से यही रखना आधार।

©अनीता सैनी 

गुरुवार, फ़रवरी 6

पंखुड़ी-सा स्मृति-वृंद



परिमल महक,पंखुड़ी-सा स्मृति-वृंद, 
चहुं-दिशि हरित-छटाएँ फैलाती है,  
 खनकती पायल-सी अंतरमन में, 
गूँजती हृदय में भँवरे की गुँजार है। 

नयनों पर मायाविनी-सी रचती, 
कुछ पल सपनों का संसार है, 
लताओं के कुँज में छिपी, 
अहर्निश प्रतीक्षा बारंबार है। 

नीरव-सा नीरस एकांत,  
दर्शाती आयरिस आँखों की,  
सूनेपन की उमड़ी दारुण कथा, 
खारे पानी का बहता बहाव है, 
व्यंग्य भाव से झूलती झूला, 
 कहती यही जीवन की बहार है।

मरु-से मन में फिरती मरीचि-सी, 
 विहगावली-सा डोलता सुन्दर संसार है, 
सूने आँगन में लहरायी बल्लरियों-सी, 
गुज़रते समय ने किया उपहास है, 
लौकिक वेदना का मरहम गोद प्रकृति की, 
मूक व्यथा का बिखरा मुक्ता-हार है

©अनीता सैनी 

मंगलवार, फ़रवरी 4

हाइकु



1.
शीतलहर~
फटे पल्लू से मुख
निकाले शिशु।

2.
संध्या लालिमा~
ग्वाले की बांसुरी से
गूंजी गौशाला।

3.
कुहासा भोर -
पिता संग खेत में 
खींचती हल |

4.
रक्तिम साँझ~
पगडंडी निहारे
बुजुर्ग माता।

5.
वन में ठूँठ~
बरगद के नीचे
लकड़हारा।

6.
रक्तिम साँझ~
पगडंडी निहारे
बुजुर्ग माता।

7.
पूस की रात~
खलिहान पहुँचा
वृद्ध किसान |

8.
संध्या लालिमा ~
अहीर की गोद में 
नन्हा बछड़ा |

9.
मेघ गर्जन~
वृद्ध लिए हाथ में
फूस गट्ठर।

10
निर्जन गली ~
जर्ज़र हवेली से 
पायल ध्वनी |

1.
अर्द्ध यामिनी~
जुगनू की आभा से
चमके धरा । 

2.
रुदन स्वर~
पति की फोटो पास
बैठी विधवा । 

3.
ज्येष्ठ मध्याह्न~
खेत मध्य ठूंठ पे
किशोरी शव।

4.
कुहासा भोर~
चूल्हा लीपे माटी से
रसोई में माँ।

5.
शीतल नीर ~
वृक्ष की छाँव तले
हिरण झुण्ड । 

6.
चौथ का चाँद ~
  हाथ में पूजा थाल
नवल वधू । 

7.
उत्तरायण ~
माँझे में उलझें है
पक्षी के पँजे । 

8.
उत्तरायण ~
पक्षियों के पँजे से
 लहू की बूँदें । 

9.
कुहासा भोर ~
सैनिक वेश धरे
नन्हें बालक।

10.
पूस की रात~
खलिहान में जागे
वृद्ध किसान । 

11.
रात्रि प्रहर~
सूनी राह तकती
द्वार पे वृद्धा । 

12.
मेघ गर्जन  ~
दीपक की लौ बीच
पतंगा शव । 

13
ठण्डी बयार ~
अमिया डाल पर
झूलती गोरी । 

14.
ठण्डी बयार ~
चौपाल के बीच में
हुक्के का धुँआ । 

15.
 संध्या लालिमा ~
गाय झुण्ड में गूँजा
घंटी का स्वर । 

16
 संध्या लालिमा ~
ग्वाले की गोद में
नन्हा बछड़ा 

17
 पौष मध्याह्न~
मंगौड़ा की सुगंध
पाकशाला से। 

18.
कुहासा भोर -
मयूर नृत्य देखे 
नन्हीं बालिका। 

19.
सघन वन-
लपटों के बीच में
कंगारू दल।

20.
कुहासा भोर~
पतंग-मांझा संग
छत पे बच्चे। 

21.
जेठ मध्याह्न~
गन्ना गट्ठर लादे
पीठ पे नारी। 

22.
मिट्टी की गंध ~
हल्की बरसात में 
छलका आँसू। 

© अनीता सैनी 

सोमवार, फ़रवरी 3

भूख का वह भीषण दौर



जिस शाम छूटी थीं तुम्हारी अँगुलियाँ मेरे हाथ से, 
समय-प्रवाह में तलाश रही थी मैं हाथ तुम्हारा, 
रोयी थी पूनम की चाँदनी तब चाँद गवाह बना था,  
 बदली थी  सूरज ने अपनी जगह तुम देख रहे थे, 
वह पश्चिम में दिखा था। 

भूख का चल रहा वह भीषण दौर भयावह था,
चीख़ती आवाज़ें अंतरमन की अकेलेपन के नुकीले दाँत, 
वसंत में फूटती मटमैली-सी मन की अभिलाषा, 
 मैं जीवन का सारा सब्र चबा चुकी थी। 

सबसे पहले चबायी थी मैंने अपनी ज़ुबाँ, 
ग़मों के साथ ग़ुस्सा निगला,धीरे-धीरे नाख़ून कुतरे,
बीच-बीच में गटके थे आँसू के घूँट भी, 
निगाह झुकाये तब मैं नोंच रही थी तन को अपने, 
मैं पूर्णतया अब स्वयं के लिये स्वयं पर आश्रित। 

हृदय पर किये थे मैंने आघात याद हैं  मुझे, 
तिल-तिल तड़पा चबाया था अंत में मैंने उसे, 
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा भी हुआ था उस दरमियाँ,    
नितांत व्यक्तिगत रही थी यह हिंसा मेरी । 

जब मैं अश्रुओं से भिगो चबा रही थी हृदय अपना, 
तुम दूर क्षितिज की सीमा पर खड़े देख रहे थे मुझे, 
 जता रहे थे लाचारी न टोक रहे थे न रोक रहे थे, 
 यादों की बहती धारा थी वह, 
नदी के तटों-सा जीवन बना था तब हमारा। 

© अनीता सैनी 

शनिवार, फ़रवरी 1

समझ ग़ुलाम क्यों है?



सागर की लोल लहर,सन्नाटे की गूँज,  
छाती की छोटी-सी सिहरन बन दौड़ी,  
रचा समय ने इतिहास,द्वेष की हवा क्यों है? 
जनवादी-युग में प्रकृति पर प्रहार, 
तय विनाश का सफ़र क्यों है?  
सीपी-सी मासूम धड़कनों का पतन,  
मानवता बुर्क़े में चेहरा छिपाये क्यों है? 

प्रत्यवलोकन कर मानव यथार्थ का,  
प्रत्यभिमुख अस्तित्त्व से अपने क्यों है?  
खींप,आक कह बाँधी बाड़ एकता की,  
हनन जीवन-निधि का यह कैसा तांडव रचा है,  
बड़प्पन के मुखौटे पर लेवल समझदारी का,  
कैसा अवास्तविक आवरण हवा में गढ़ा, 
स्वार्थ-निस्वार्थ समझ की चुप्पी का 
लेता हिलोरें क्यों है 

 बढ़ा धरा पर घास-फूस का हाहाकार,  
झिझक घटी,बढ़ीं विकृतियाँ बदहवास वासना कीं,  
हरी पत्तियाँ रौंद,सूखे डंठल से हुँकार,  
कँटीली झाड़ियों का बसाया कैसा परिवेश है?  
मंदिर-मस्जिद के गुंबद के पीछे डूबते एक,
 चाँद-सूरज का करता बँटवारा इंसान, 
 अनेकता में एकता का धुँधला पड़ता स्नेह,
शब्दों का मुहताज बन समझ ग़ुलाम क्यों है? 

©अनीता सैनी