जिस शाम छूटी थीं तुम्हारी अँगुलियाँ मेरे हाथ से,
समय-प्रवाह में तलाश रही थी मैं हाथ तुम्हारा,
समय-प्रवाह में तलाश रही थी मैं हाथ तुम्हारा,
रोयी थी पूनम की चाँदनी तब चाँद गवाह बना था,
बदली थी सूरज ने अपनी जगह तुम देख रहे थे,
वह पश्चिम में दिखा था।
वह पश्चिम में दिखा था।
भूख का चल रहा वह भीषण दौर भयावह था,
चीख़ती आवाज़ें अंतरमन की अकेलेपन के नुकीले दाँत,
वसंत में फूटती मटमैली-सी मन की अभिलाषा,
मैं जीवन का सारा सब्र चबा चुकी थी।
सबसे पहले चबायी थी मैंने अपनी ज़ुबाँ,
ग़मों के साथ ग़ुस्सा निगला,धीरे-धीरे नाख़ून कुतरे,
बीच-बीच में गटके थे आँसू के घूँट भी,
निगाह झुकाये तब मैं नोंच रही थी तन को अपने,
निगाह झुकाये तब मैं नोंच रही थी तन को अपने,
मैं पूर्णतया अब स्वयं के लिये स्वयं पर आश्रित।
हृदय पर किये थे मैंने आघात याद हैं मुझे,
तिल-तिल तड़पा चबाया था अंत में मैंने उसे,
पाप-पुण्य का लेखा-जोखा भी हुआ था उस दरमियाँ,
नितांत व्यक्तिगत रही थी यह हिंसा मेरी ।
जब मैं अश्रुओं से भिगो चबा रही थी हृदय अपना,
तुम दूर क्षितिज की सीमा पर खड़े देख रहे थे मुझे,
जता रहे थे लाचारी न टोक रहे थे न रोक रहे थे,
यादों की बहती धारा थी वह,
नदी के तटों-सा जीवन बना था तब हमारा।
नदी के तटों-सा जीवन बना था तब हमारा।
© अनीता सैनी
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज सोमवार 03 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय दीदी जी
हटाएंमैंने अभी आपका ब्लॉग पढ़ा है, यह बहुत ही शानदार है।
जवाब देंहटाएंरोमांटिक शायरी कलेक्शन
बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय
हटाएंसादर
बेहतरीन रचना सखी 👌
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार आदरणीय दीदी सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
बहुत ही सुन्दर रचना सृजित हुई है । बहुत-बहुत बधाई ।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
ज़िन्दगी में ऊहापोह और भावनाओं का मकड़जाल जब सुखद संभावनाओं को रौंदता हुआ नज़र आये तो हृदय विदीर्ण होकर अवसाद का दरिया तलाशता है और चेतना का ऐसा धरातल अवतरित होता है जहाँ स्वयं को स्वयं से जूझता हुआ पाते हैं हम और फिर आत्मसंतोष की ओर लौट आते हैं एक अभूतपूर्व हल के साथ.
जवाब देंहटाएंरचना सरसरी निगाह में आत्मघात को उकसाती प्रतीत होती है किंतु अर्थ-गाम्भीर्य की भावभूमि के पैमाने पर कसने पर उत्कृष्ट सृजन के मानदंड पूरे करती है जिसमें ख़ासियत है मौलिक चिंतन का मौजूद होना.
बधाई एवं शुभकामनाएँ.
सादर आभार आदरणीय रचना का मर्म स्पष्ट करती सारगर्भित समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
वाह!!प्रिय सखी ,बहुत खूब!!👌
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय दीदी सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (05-02-2020) को "आया ऋतुराज बसंत" (चर्चा अंक - 3602) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सहृदय आभार आदरणीय चर्चामंच पर स्थान देने हेतु.
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जब मैं अश्रुओं से भिगो चबा रही थी हृदय अपना,
जवाब देंहटाएंतुम दूर क्षितिज की सीमा पर खड़े देख रहे थे मुझे,
जता रहे थे लाचारी न टोक रहे थे न रोक रहे थे,
बेहतरीन सृजन अनीता जी ,एक एक भाव दिल को छू रही हैं ,सादर स्नेह
सादर आभार आदरणीया कामिनी दीदी जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
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