तुम जूझ रहे हो स्वयं से,
या उलझे हो,
भ्रम के मकड़जाल में,
भ्रम के मकड़जाल में,
सात्विक अस्तित्त्व के,
कठोर धरातल पर बैठे हो,
या इंसान की देह पर,
ज़िंदा लाश की तरह,
यों ही लदे हो,
यों ही लदे हो,
या ढो रहे हो स्वयं को,
मर रही मानवता पर
क्योंकि तुम सत्य हो।
चेहरा अपना छिपाये हो,
मर रही मानवता पर
क्योंकि तुम सत्य हो।
चेहरा अपना छिपाये हो,
या बार-बार दम तोड़ते,
यथार्थ का सामर्थ्य हो,
तलाशते हो पहचान,
यथार्थ का सामर्थ्य हो,
तलाशते हो पहचान,
क्योंकि तुम सत्य हो।
कभी रौंदे जाते हो,
रहस्य की तरह,
रहस्य की तरह,
अनगिनत अनचीह्नी,
उठती आवाज़ो से,
उठती आवाज़ो से,
किये जाते हो प्रभावहीन,
असामयिक खोखले,
उसूलों की अरदास पर,
उसूलों की अरदास पर,
चिल्ला नहीं सकते,
झूठ की तरह तुम,
क्योंकि तुम स्वयं में,
पूर्णता का एहसास हो,
झूठ की तरह तुम,
क्योंकि तुम स्वयं में,
पूर्णता का एहसास हो,
फैल नहीं सकते,
फ़रेब की तरह,
फ़रेब की तरह,
क्योंकि तुम सत्य हो
सूर्य की अनंत आभा की तरह।
© अनीता सैनी
सूर्य की अनंत आभा की तरह।
© अनीता सैनी
बहुत ही अच्छी कविता |बधाई अनीता जी
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय सर
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समकालीन चिंतन को विचारोत्तेजक शैली में अभिव्यक्त किया है. समाज में बढ़ता जीवन मूल्यों का ह्रास निस्संदेह अब आक्रोश भरने लगा है जो अब गंभीर चिंता का विषय है.
जवाब देंहटाएंरचना में भावात्मक पक्ष मुखर प्रतीत होता है.
सादर आभार आदरणीय रचना का मर्म स्पष्ट करती सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
तुम जूझ रहे हो स्वयं से,
जवाब देंहटाएंया उलझे हो,
भ्रम के मकड़जाल में,
सात्विक अस्तित्त्व के,
कठोर धरातल पर या,
इंसान की देह पर,
ज़िंदा लाश की तरह,
यों ही लदे हो या,
ढो रहे हो स्वयं को,
मर रही मानवता पर
क्योंकि तुम सत्य हो।
बहुत ही सुन्दर कहा अनीता लिखती रहो..
बहुत बहुत शुक्रिया आपका
हटाएंसादर
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 11 फरवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय दीदी मंच पर मेरे लेखन को मान देने हेतु.
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क्योंकि तुम सत्य हो सूर्य की तरह स्वयं में पूर्णता का एहसास हो तुम फैल नहीं सकते फरेब की तरह ,क्योंकि तुम सत्य हो
जवाब देंहटाएंसूर्य की अनंत आभा की तरह बेहतरीन प्रस्तुति अनीता जी
सादर आभार आदरणीय दीदी जी सुन्दर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर स्नेह
बेहतरीन सृजन सखी अनीता जी। बहुत-बहुत बधाई।
जवाब देंहटाएंसादर आभार सखी उत्साहवर्धन हेतु.
हटाएंसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (12-02-2020) को "भारत में जनतन्त्र" (चर्चा अंक -3609) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
--
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
सादर आभार आदरणीय चर्चामंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
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बहुत सुन्दर अनीता !
जवाब देंहटाएंसत्य तो - 'सहज पके सो मीठा होय' जैसा होता है. उसके न तो चमत्कार होते हैं और न ही उसमें चमक-दमक होती है. किन्तु उसका प्रकाश आत्मा को आलोकित करता है और मनुष्य का पशुत्व समाप्त कर उसे मानव बनाता है.
सादर आभार आदरणीय सर आपकी समीक्षा ने रचना को और सुन्दर बना दिया. अपना आशीर्वाद बनाये रखे.
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बेहतरीन रचना। सत्य की सत्यता और अक्षुण्णता को सुंदर तरीके से बयाँ करती इस लेखन हेतु बधाई व शुभकामनाएँ ।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय सर सारगर्भित समीक्षा से रचना को नवाज़ने हेतु. आशीर्वाद बनाये रखे.
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क्योंकि तुम स्वयं में,
जवाब देंहटाएंपूर्णता का एहसास हो,
फैल नहीं सकते,
फ़रेब की तरह,
क्योंकि तुम सत्य हो
सूर्य की अनंत आभा की तरह
वाह !! बहुत ही सुंदर सृजन अनीता जी ,स्नेह
सादर आभार आदरणीय दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
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बहुत ही सुंदर
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय
हटाएंप्रणाम
स्तरीय सटीक सार्थक सृजन ।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
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बहुत खूब लिखा आपने आदरणीया मैम।
जवाब देंहटाएंसादर प्रणाम।
बहुत बहुत शुक्रिया आँचल जी
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