मानवता शर्मसार है,
इंसा-इंसा को निगल रहा,
सजा कैसा बाज़ार है?
होड़ कैसी बढ़ी उन्नति की,
अवनति का शृंगार है,
सुख वैभव स्वार्थ सिद्धि को,
गढ़ता जतन बारंबार है।
अगुआओं के दिवास्वप्न का,
जनता उठाती भार है,
इंसा-इंसा को निगल रहा,
सजा कैसा बाज़ार है?
लूट-पाट का दौर दयनीय,
मचा जग में हाहाकार है,
अनपढ़ हाथों में खेल रहे,
पसरा अत्याचार है।
त्याग-तपस्या भूले उनकी,
जीवन जिनका उपकार है,
इंसा-इंसा को निगल रहा,
सजा कैसा बाज़ार है?
©अनीता सैनी
अगुआओं के दिवास्वप्न का,
जवाब देंहटाएंजनता उठाती भार है,
इंसा-इंसा को निगल रहा,
सजा कैसा बाज़ार है?
बहुत सुंदर और सटीक प्रस्तुति सखी 👌👌
सादर आभार आदरणीय दीदी
हटाएंसादर
त्याग-तपस्या भूले उनकी,
जवाब देंहटाएंजीवन जिनका उपकार है,
इंसा-इंसा को निगल रहा,
सजा कैसा बाज़ार है?.....
बहुत सुन्दर प्रस्तुति अनीता |
बहुत बहुत शुक्रिया जी
हटाएंसादर
लूट-पाट का दौर दयनीय,
जवाब देंहटाएंमचा जग में हाहाकार है,
अनपढ़ हाथों में खेल रहे,
पसरा अत्याचार है।
वाह!!!!
बहुत ही सुन्दर सार्थक सटीक...
लाजवाब सृजन।
सादर आभार आदरणीय दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार (02-03-2020) को 'सजा कैसा बाज़ार है?' (चर्चाअंक-3628) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
रवीन्द्र सिंह यादव
सादर आभार आदरणीय सर
हटाएंसुन्दर प्रस्तुति
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय
हटाएंसमकालीन परिस्थितियों पर तंज़ कसता प्रभावशाली नवगीत जो विभिन्न ज्वलंत मुद्दों पर बेबाकी से अपनी राय प्रकट करता है।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
वास्विकता यही है आज के युग की
जवाब देंहटाएं.. कलम फिर भी भाग्यशाली है लिख देती है जो सच्च है। ..हम तो बोलने से भी डरते हैं। ..
आपकी कलम को बधाई सार्थक रचना लिखने के लिए
आभार
सादर आभार प्रिय सखी सुंदर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर स्नेह
इंसा-इंसा को निगल रहा,
जवाब देंहटाएंसजा कैसा बाज़ार है?
बहुत ही सुंदर सम सामयिक रचना । बहुत-बहुत बधाई व शुभकामनाएँ आदरणीया अनीता जी।
सादर आभार आदरणीय सर उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
इंसा-इंसा को निगल रहा,
जवाब देंहटाएंसजा कैसा बाज़ार है?
बहुत ही सुंदर
सादर आभार आदरणीय सर
हटाएंसादर