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गुरुवार, मार्च 5

मिट्टी-सी निरीह


मैंने देखा है, 
 तुम्हारा अनुमोदन, 
न जाने क्यों,  
अनदेखा कर दिया,  
 आवृत्ति असीम आग्रह तुम्हारा,   
ठुकराती रही मैं क्योंकि,   
निरीह थी तुम आँगन में मेरे, 
 इतिहास के पन्नों को, 
 टटोलते हुए,  
 देखा है तुम्हें मैंने, 
तुम आज भी वहीं थीं, 
 मनु काल के वही,  
फुँफकारते साँप, 
डंक मारते बिच्छू,  
बदचलनी की, 
वही ज़हरीली हवा, 
पल-पल पड़ते, 
 कुलटा,बाज़ारु नाम के,  
 वही नुकीले पत्थर, 
 तुम्हें मिट्टी-सी, 
 निरीह मानते हैं  वे, 
तुम्हारा सब्र नहीं टूटता? 
 वह मुस्कुराते हुए बोली- 
अभिमानी ईह में,  
स्वयं को रौंदता है, 
और मैं उसे,  
क्योंकि मैं निरीह हूँ। 

©अनीता सैनी 

 निरीह = इच्छारहित, विरक्त
 ईह = तृष्णा / इच्छा  करना 



22 टिप्‍पणियां:

  1. उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
      सादर

      हटाएं
  2. जी नमस्ते,
    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 06 - 03-2020) को "मिट्टी सी निरीह" (चर्चा अंक - 3632) पर भी होगी।
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    *****
    अनीता लागुरी"अनु"

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार अनु चर्चामंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
      सादर

      हटाएं
  3. जी नमस्ते,
    आपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
    पांच लिंकों का आनंद पर...
    आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय श्वेता दीदी पांच लिंकों के आनंद पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.

      हटाएं
  4. गहरा चिन्तन और एक गंभीर निराशा छुपी है आपकी इस अभिव्यक्ति में ।
    न जाने क्यूँ एक खौफ व डर की झलक है इस रचना में ।
    हमारी शुभकामनाएँ है।

    जवाब देंहटाएं
  5. जबरदस्त गूढ़ भावों को समेटे एक सम्पूर्णनाद।
    वह मुस्कुराते हुए बोली-
    अभिमानी ईह में,
    स्वयं को रौंदता है,
    और मैं उसे,
    क्योंकि मैं निरीह हूँ।
    बस एक छोटे से वाक्य से इस निरीह ने सब को
    धरा के तुच्छ पदार्थ का अहसास करवा दिया।
    निशब्द, निरंजन।

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीया कुसुम दीदी सारगर्भित समीक्षा हेतु. आप का स्नेह सानिध्य यों ही मिलता रहे. आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर

      हटाएं
  6. वह मुस्कुराते हुए बोली-
    अभिमानी ईह में,
    स्वयं को रौंदता है,
    और मैं उसे,
    क्योंकि मैं निरीह हूँ।

    बहुत खूब अनीता जी ,सादर स्नेह

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय कामिनी दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
      आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर

      हटाएं
  7. मनु काल के वही,
    फुँफकारते साँप,
    डंक मारते बिच्छू,
    बदचलनी की,
    वही ज़हरीली हवा,
    पल-पल पड़ते,
    कुलटा,बाज़ारु नाम के,
    वही नुकीले पत्थर,
    तुम्हें मिट्टी-सी,
    निरीह मानते हैं
    एकदम सटीक मिट्टी सी निरीह माना और वैसा ही व्यवहार भी किया इतिहास से वर्तमान तक निरीहता की हद....
    बहुत ही लाजवाब सृजन
    वाह!!!

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीया सुधा दीदी जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु. स्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.

      हटाएं
  8. मिट्टी की महिमा अपरंपार है। प्रकृति का ही अंग है मिट्टी जो रौंदे जाने पर गारा भी बनती है और समाजोपयोगी पात्र या मूर्ति का आकार लेती है वह उसे अपना अपमान नहीं समझती यही सकारात्मकता मिट्टी को असीम धैर्यवान होने का अलंकरण देती है जो महानता का गुण है। प्रस्तुत रचना में कवयित्री स्त्री जीवन को भारतीय सामाजिक ढाँचे की तयशुदा मर्यादाओं की पृष्ठभूमि में कश्मकश के साथ कुछ सवाल लेकर खड़ी होने का आग्रह करती है।

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    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय रचना का मर्म स्पष्ट करती सारगर्भित समीक्षा हेतु. आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर

      हटाएं
  9. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7-3-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी

    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।

    ---

    कामिनी सिन्हा

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय दीदी शब्द सृजन में मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
      सादर

      हटाएं
  10. अभिमानी ईह में,
    स्वयं को रौंदता है,
    और मैं उसे,
    क्योंकि मैं निरीह हूँ।
    ये समस्त चिंतन का सार है और माटी का स्वाभिमान भी |

    जवाब देंहटाएं
    उत्तर
    1. सादर आभार आदरणीय दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु. आशीर्वाद बनाये रखे.

      हटाएं