न जाने क्यों,
अनदेखा कर दिया,
आवृत्ति असीम आग्रह तुम्हारा,
ठुकराती रही मैं क्योंकि,
निरीह थी तुम आँगन में मेरे,
इतिहास के पन्नों को,
टटोलते हुए,
देखा है तुम्हें मैंने,
तुम आज भी वहीं थीं,
मनु काल के वही,
फुँफकारते साँप,
डंक मारते बिच्छू,
बदचलनी की,
वही ज़हरीली हवा,
पल-पल पड़ते,
कुलटा,बाज़ारु नाम के,
वही नुकीले पत्थर,
तुम्हें मिट्टी-सी,
निरीह मानते हैं वे,
तुम्हारा सब्र नहीं टूटता?
तुम्हारा सब्र नहीं टूटता?
वह मुस्कुराते हुए बोली-
अभिमानी ईह में,
स्वयं को रौंदता है,
और मैं उसे,
क्योंकि मैं निरीह हूँ।
©अनीता सैनी
ईह = तृष्णा / इच्छा करना
बहुत सुंदर।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
हटाएंसादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा सोमवार ( 06 - 03-2020) को "मिट्टी सी निरीह" (चर्चा अंक - 3632) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित हैं।
*****
अनीता लागुरी"अनु"
सादर आभार अनु चर्चामंच पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
हटाएंसादर
जी नमस्ते,
जवाब देंहटाएंआपकी लिखी रचना शुक्रवार ६ मार्च २०२० के लिए साझा की गयी है
पांच लिंकों का आनंद पर...
आप भी सादर आमंत्रित हैं...धन्यवाद।
सादर आभार आदरणीय श्वेता दीदी पांच लिंकों के आनंद पर मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
हटाएंगहरा चिन्तन और एक गंभीर निराशा छुपी है आपकी इस अभिव्यक्ति में ।
जवाब देंहटाएंन जाने क्यूँ एक खौफ व डर की झलक है इस रचना में ।
हमारी शुभकामनाएँ है।
सादर आभार आदरणीय सर
हटाएंगहन भाव
जवाब देंहटाएंसादर आभार बहना
हटाएंजबरदस्त गूढ़ भावों को समेटे एक सम्पूर्णनाद।
जवाब देंहटाएंवह मुस्कुराते हुए बोली-
अभिमानी ईह में,
स्वयं को रौंदता है,
और मैं उसे,
क्योंकि मैं निरीह हूँ।
बस एक छोटे से वाक्य से इस निरीह ने सब को
धरा के तुच्छ पदार्थ का अहसास करवा दिया।
निशब्द, निरंजन।
सादर आभार आदरणीया कुसुम दीदी सारगर्भित समीक्षा हेतु. आप का स्नेह सानिध्य यों ही मिलता रहे. आशीर्वाद बनाये रखे.
हटाएंसादर
वह मुस्कुराते हुए बोली-
जवाब देंहटाएंअभिमानी ईह में,
स्वयं को रौंदता है,
और मैं उसे,
क्योंकि मैं निरीह हूँ।
बहुत खूब अनीता जी ,सादर स्नेह
सादर आभार आदरणीय कामिनी दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
हटाएंआशीर्वाद बनाये रखे.
सादर
मनु काल के वही,
जवाब देंहटाएंफुँफकारते साँप,
डंक मारते बिच्छू,
बदचलनी की,
वही ज़हरीली हवा,
पल-पल पड़ते,
कुलटा,बाज़ारु नाम के,
वही नुकीले पत्थर,
तुम्हें मिट्टी-सी,
निरीह मानते हैं
एकदम सटीक मिट्टी सी निरीह माना और वैसा ही व्यवहार भी किया इतिहास से वर्तमान तक निरीहता की हद....
बहुत ही लाजवाब सृजन
वाह!!!
सादर आभार आदरणीया सुधा दीदी जी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु. स्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
हटाएंमिट्टी की महिमा अपरंपार है। प्रकृति का ही अंग है मिट्टी जो रौंदे जाने पर गारा भी बनती है और समाजोपयोगी पात्र या मूर्ति का आकार लेती है वह उसे अपना अपमान नहीं समझती यही सकारात्मकता मिट्टी को असीम धैर्यवान होने का अलंकरण देती है जो महानता का गुण है। प्रस्तुत रचना में कवयित्री स्त्री जीवन को भारतीय सामाजिक ढाँचे की तयशुदा मर्यादाओं की पृष्ठभूमि में कश्मकश के साथ कुछ सवाल लेकर खड़ी होने का आग्रह करती है।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय रचना का मर्म स्पष्ट करती सारगर्भित समीक्षा हेतु. आशीर्वाद बनाये रखे.
हटाएंसादर
सादर नमस्कार ,
जवाब देंहटाएंआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (7-3-2020 ) को शब्द-सृजन-11 " आँगन " (चर्चाअंक -3633) पर भी होगी
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट अक्सर नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये। आप भी सादर आमंत्रित हैं।
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कामिनी सिन्हा
सादर आभार आदरणीय दीदी शब्द सृजन में मेरी रचना को स्थान देने हेतु.
हटाएंसादर
अभिमानी ईह में,
जवाब देंहटाएंस्वयं को रौंदता है,
और मैं उसे,
क्योंकि मैं निरीह हूँ।
ये समस्त चिंतन का सार है और माटी का स्वाभिमान भी |
सादर आभार आदरणीय दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु. आशीर्वाद बनाये रखे.
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