सोमवार, मार्च 30

अभिसारिका



प्रीत व्यग्र हो कहे राधिका, 
घूँघट ओट याद हर्षाती ।
मुँह फेरुँ तो मिले कान्हाई, 
जीवन मझधारे तरसाती ।।

साँझ-विहान गुँजे अभिलाषा, 
मनमोहिनी- मिलन को आयी। 
प्रिये की छवि उतरी नयन में, 
अश्रुमाला गिर हिय समायी। 
जलती पीड़ा दीप माल-सी,  
यादें माधव की रूलाती ।।

बारंबार जलाती बैरन, 
भेद  कँगन से कह-कह जाती। 
भूली-बिसरी सुध जीवन की, 
समय सिंधु में गोते खाती।  
हरसिंगार सी  पावन प्रीत, 
अभिसारिका बन के लुभाती ।।

नीरव पीड़ा है अदृश्य सी 
याद  रेख की जलती  ज्वाला 
भूली रूप फूल की डाली 
लूट विभा विदेह की बाला 
करुण पुकार हृदय आँगन की 
 बुलबुल- भांति तड़पती रहती। 

©अनीता सैनी 

12 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत ही सुंदर भावाभिव्यक्ति 👌👌👌

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  2. बहुत ही सुंदर सृजन अनीता जी

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  3. सादर नमस्कार ,

    आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (31 -3-2020 ) को " सर्वे भवन्तु सुखिनः " ( चर्चाअंक - 3657) पर भी होगी,
    आप भी सादर आमंत्रित हैं।
    ---
    कामिनी सिन्हा

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    1. बहुत बहुत शुक्रिया आदरणीय दीदी मेरी रचना को चर्चामंच पर स्थान देने के लिये.
      सादर आभार

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  4. नीरव पीड़ा है अदृश्य सी
    याद रेख की जलती ज्वाला
    भूली रूप फूल की डाली
    लूट विभा विदेह की बाला
    करुण पुकार हृदय आँगन की
    बुलबुल- भांति तड़पती रहती।।
    बहुत खूब प्रिय अनीता| विअरह में डूबी सखी के मन की पीड़ा को बहुत ही मार्मिकता से लिख दिया तुमने | एक एक पंक्ति बहुत बढिया है |

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    1. सादर आभार आदरणीया रेणु दीदी सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
      सादर

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  5. बहुत शानदार नव गीत ।

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    1. सादर आभार आदरणीया दीदी स्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
      सादर

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