जीवन माँझे-सा उलझा है
राहत पाने को अकुलाये ।
बेचैनी में सिमटी सांसें
कौतुहल कोहराम मचाये।
दीन-हीन सूखे पतझड़ से
कैसे पीड़ा को संभाले ।
हंस रूप धारण कर कौए
पर पीड़ा को नहीं निवाले ।
खेल नियति भी हार चुकी है
विडंबनाएं चिह्न दिखायें ।।
क्षुधा कुलबुलाती अंतड़ियाँ
अश्रुओं से मुरझाया आक ।
नन्ही पौध भूख से व्याकुल
निसर्ग हुआ नि:शब्द अवाक।
दीप करुणा का जले जहाँ में
गुलमोहर-सा जग खिल जाये ।।
हर मौसम की मार झेलता
मृगतृष्णा से रहे भरमाता ।
तेज़ घाम में भी खिल जाता
दुख-तपन से नहीं घबराता ।
शीतल नीर बहा अब मानव
लख गुण मानवता हर्षाये।।
©अनीता सैनी 'दीप्ति'
शुद्ध हिंदी की सुंदर कविता के लिए आपको शुभकामनाएँ।
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय मनोबल बढ़ाने हेतु.
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बेहतरीन रचना
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय सर मनोबल बढ़ाने हेतु.
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दीन-हीन सूखे पतझड़ से
जवाब देंहटाएंकैसे पीड़ा को संभाले ।
हंस रूप धारण कर कौए
पर पीड़ा को नहीं निवाले ।
खेल नियति भी हार चुकी है
विडंबनाएं चिह्न दिखायें ।।
वाह!!!!
सुन्दर नवगीत की अनंत बधाई अनीता जी !
सादर आभार आदरणीया आपकी समीक्षा हमेशा मेरा उत्साहवर्धन करती है. यों ही स्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
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