पीड़ा और प्रीत को जीते,
पन्नों में बिखरे किरदार,
अनुभूति में सिमटे शब्द,
तूलिका से निखरे हर बार।
खंडित सत्य का स्वरुप,
पहने शब्दों का लिबास,
किताबनुमा अँगोछे में,
अनगढ़ प्रेम का विश्वास।
साँचे में ढले समाज को,
अंकित करता कंपित मौन,
अंतरदृष्टि में घुटता धुआँ,
सुघड़ आमुख दानी कौन?
©अनीता सैनी 'दीप्ति'
विश्व पुस्तक दिवस पर एक बेहतरीन रचना पढ़ने को मिली जिसमें न्यूनतम शब्दों में शब्दालंकार और अर्थालंकार की अनूठी छटा बिखेरी गई है। ऐसी उत्कृष्ट रचनाएँ बार-बार पढ़ने पर नए-नए अर्थ प्रस्फुटित करतीं हुई पाठक को मंत्रमुग्ध कर देतीं हैं।
जवाब देंहटाएंहुई = हुईं
हटाएंसादर आभार आदरणीय सर सुंदर सारगर्भित समीक्षा हेतु.
हटाएंआशीर्वाद बनाये रखे.
सादर
खंडित सत्य का स्वरुप,
जवाब देंहटाएंपहने शब्दों का लिबास,
किताबनुमा अँगोछे में,
पीड़ित प्रेम का विश्वास। .... अनगढ़ प्रेम व विश्वास की ये पंक्तियां बहुत ही खूबसूरती से अपनी बात बयां कर रही हैं अनीता जी ... बहुत ही खूब लिखा ....
सादर आभार आदरणीया दीदी उत्साहवर्धक समीक्षा हेतु.
हटाएंस्नेह आशीर्वाद बनाये रखे.
सादर
पीड़ा और प्रीत को जीते,
जवाब देंहटाएंपन्नों में बिखरे किरदार,
अनुभूति में सिमटे शब्द,
तूलिका से निखरे हर बार। ...बेहद शानदार सृजन
सादर आभार आदरणीया दीदी सुंदर समीक्षा हेतु.
हटाएंआशीर्वाद बनाये रखे.
सादर
सुन्दर सृजन
जवाब देंहटाएंसादर आभार आदरणीय
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