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शनिवार, मई 30

शलभ नहीं, न ही जलती बाती बनना



शलभ नहीं, न ही जलती बाती बनना 
 वे प्रज्जवलित दीप बनना चाहते हैं। 
 अँधियारी गलियों को मिटाने का दम भरते 
 चौखट का उजाला दस्तूर से बुझाना चाहते हैं।  

मरु में राह की लकीर खींच आँधी बुलाते  
कंधों पर लादे ग़ुरुर सहानुभूति थमाना चाहते हैं। 
मिटने की नहीं मिटाने की तत्परता से 
क्रांति का बिगुल क्रान्तिकारी बन बजाना चाहते हैं।  

जगना नहीं जग को जगाने  की प्रवृत्ति लिए 
बुद्धि की कतार में नाम दर्ज करवाना चाहते हैं।  
द्वेष घोलते परिवेश में शब्दों के महानायक 
प्रीत की  नई परिभाषा गढ़ना चाहते हैं।  

लम में महत्त्वाकांक्षा की मसी का उफान 
 विश्व का उद्धार एक पल में लिखना चाहते हैं।  
अतीत को पलटते ग़लतियाँ समझाते सबल 
वर्तमान को कुचलते भविष्य को नोचना चाहते हैं।  

© अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, मई 28

इंसानीयत हूँ

अनुसरण से आचरण में ढली 

इंसान में एकनिष्ठ  सदभाव हूँ। 
दग्धचित्त पर शीतल बौछार  
सरिता-सा प्रवाह इंसानीयत हूँ। 

निराधार नहीं अस्तित्त्व में लीन 
पुण्यात्मा  से बँधी करुणा हूँ। 
मधुर शब्द नहीं कर्म में समाहित 
नैनों से झलकता स्नेह अपार हूँ। 

शून्य सहचर अमरता वरदान 
मूक-बधिर भाव में झँकृत हूँ। 
साध सुगंध  सुंदर जीवन मैं 
 चेतना मानव की लिप्त आश्रय हूँ। 

सृष्टि में विद्यमान समंजित मर्मज्ञ 
जन-जीव के हृदय में निराकार हूँ। 
अंतःस्थ में विराजित एकाकी मौन 
जीवन पल्लवित सुख का आधार हूँ।

© अनीता सैनी  'दीप्ति'

बुधवार, मई 27

ये जो घर हैं न फिर मिलते हैं सफ़र में



ये जो घर हैं न फिर मिलते हैं सफ़र में
यों भ्रम में बुने सपने भी पथिक
कभी-कभी सूखे में हरे होते हैं।
परिग्रह के पात-सा झरता पुण्य
 पत्ते बन फिर पल्ल्वित होता है।
अनजाने पथ पर
अनजाने साथी भी  सच्चे होते हैं।

राहगीर राह  की दूरी भाँपना
यात्रा सांसों की अति मधुर होती है।
नीलांबर में डोलते बादल के टुकड़े
 दुपहरी में राहत की छाँव देते हैं।
पर्वत से बहता नदियों का निर्मल जल
धूप से धुले पारदर्शी पत्थर
 बेचैन मन को भी शीतल ठाँव देते हैं।

ऊषा उत्साह का पावन पुष्प गढ़ती है
प्राची में  प्रेम का तारा चमकता है।
अंशुमाली-सा साथ होता है अहर्निश
दुआ बरसती है तब शौर्य दमकता है।
तुम इत्मीनान से चलना पथिक
ये जो घर हैं न फिर मिलते हैं सफ़र में
यों भ्रम में बुने सपने भी
 कभी-कभी सूखे में हरे होते हैं।

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

रविवार, मई 24

अधमरे अख़बार के पलटे पन्ने, उठते तूफ़ान की नहीं कोई ख़बर...



आज सुबह अधमरे अख़बार के पलटती पन्ने,
 उठते तूफ़ान की नहीं कोई ख़बर।  
शहर की ख़ामोशी में चारों ओर शांति ही शांति 
नहीं कोहराम का कोई कोंधता आलाप।  

एक माँ चीख़ी...
 बच्चे की थी करुण पुकार 
जग ने कहा -
माँ-बेटे की पीड़ा का विलाप! नहीं नियति पर ज़ोर। 
पूछ-पूछ पता घरों का, देगा दस्तक यह तूफ़ान 
बाक़ी मग्न झूमो जीवन में सुख का थामे छोर।  

दीन-दुनिया से बेख़बर व्यस्तता की 
महीन चादर ओढ़े  दौड़ रहे सब ओर। 
सूरज बरसाता चिलचिलाती धूप पृथ्वी पर 
हवा भी मंद-मंद झूम रही एक ओर। 

बुरा न देखो, बुरा न सुनो, बुरा न कहो 
उमसाए सन्नाटे ने बाँधी ज़ुबाँ की डोर। 
अंतस में उमड़े सैलाब को न कहो तूफ़ान  
पत्ते गिरे होंगे पेड़ों से! भ्रम ने थामी होगी डोर। 

©अनीता सैनी'दीप्ति'

शुक्रवार, मई 22

श्रमजीवी श्रम धावक


कुछ परछाइयाँ मायूस हुईं !
कुछ शीश टिकाए बैठीं घुटनों पर 
कुछ बौराई-सी नम आँखों से 
पथरीले पथ पर टहल रहीं।  

 घने अंधियारे में तितर-बितर 
कुछ दौड़ जीवन की लगा रहीं। 
पथराई आँखों से 
कुछ ज़िंदगी जग में ढूँढ़ रहीं। 

टहल-क़दमी की नहीं आवाज़ 
प्रत्यक्ष नहीं परछाई किसकी 
कैसी कौन रहीं वो? 
सदियों से नहीं ढोई  हृदय ने 
ऐसी पीड़ा ढो रहीं वह।  
व्यथित मन की व्याकुलता 
बहुतेरी सांसों पर डोल रहीं।  

क्रमबद्ध  संयम  संभाले 
बढ़ाती क़दम बारंबार। 
बेबस बेसहारा मजबूर नहीं 
यही बोल रही वो। 
नेता, राजनेता, अभिनेता-सा 
अभिनय नहीं 
श्रमजीवी श्रम धावक श्वेद संग 
बतियाती वो। 

निगलना चाहता उन्मुख काल 
लिए धूप-पानी का वार 
असहाय होने का नहीं गढ़ती 
फिर भी सुंदर स्वाँग वो। 
सामर्थ्य सहेजे सद्भावना 
फलीभूत भुजाओं में  
माणस निवाले से नहीं भरती 
 जीवन उड़ान वो। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

गुरुवार, मई 21

काल की रेत पर मूर्छित हैं पदचाप


सुदूर दिश में दौड़ता अबोध छौना
बादल-सी भरता भोली कुलाँच। 
तपती धूप ने किया है कोई फ़रेब या 
उमसाए सन्नाटे ने लगाई है आँच। 

मरुस्थल पर  हवा ने बिखेरे हैं धोरे 
 काल की रेत पर मूर्छित हैं पदचाप।
गर्दन घुमा देखता बकरियों का समूह
गूँजता गड़रिये का व्याकुल आलाप।

आँधी से उड़ती धूल देख अचकचाए  
पीड़ा पी रहे बालू  के महीन कण-कण।  
बेबस पर यों हुक्म सब्र का बाँध न बना
वेदना के सैलाब में डूबा हुआ है जनगण। 

  संदेह के आत्मघाती तीर तरकश में छोड़
मृगमरीचका-सा भ्रम जाल न बना। 
संयम संतोष सहेज राह में पल के पथिक
तरसती आँखों को यों बदरी न बना।

© अनीता सैनी 

शनिवार, मई 16

नवीन किसलय मुरझाए बंधु



कंधों पर सुकून का अँगोछा 
मग्न आज किस लय में बंधु।  
तरुवर पथ की  सूखी शाख़ 
नवीन किसलय मुरझाए बंधु। 

असहाय की छलकती पीड़ा 
 पेट की भूख आँखों से टपकी। 
संवेदनहीन पूंजीभूत पराग  
अनल-सी जलती देह सारथी। 
समझ पड़ाव सब भाप बने 
कहाँ निशा पुण्य प्रभात बंधु। 

शोभा श्री समन्वय जनगण से 
करुणा की बरसा बौछार। 
मजबूर मज़दूर पुर को दौड़े 
माली थमा पुष्प का एक हार। 
मणि-मनके खनि की शोहरत 
भावुक मन जगा अनुराग बंधु। 

अचरज से छलक उठी निगाहें 
परिमलमय पारिजात पर। 
इंगित अंतस के अश्रुकर 
तरु-शाख़ा पर किसलय सूखे। 
हृदय की पीड़ा फूटी सड़क पर 
बदल न लिबास बारंबार बंधु। 

©अनीता सैनी 

गुरुवार, मई 14

क्षितिज पर नहीं



उदय-अस्त की नियमित क्रीड़ा 
दृश्य निर्मम यथार्थ का।  
झुलसे पत्थर उजड़ी सड़क 
दृश्य प्रज्वलित दोपहरी का।  

देह मानव की भाप बनी 
निशान नहीं पदचाप का। 
खोजी श्वान का स्वाँग गढ़ा  
भ्रमित परपीड़ा संताप की। 

 काल निर्वहन दिवाकर का 
सृष्टि में व्याप्त व्यवधान का। 
दिशाहीन बिखरे जन-जीवन  
दृश्य शोकाकुल शोक दोपहरी का। 

खींप-आक सब सूख रहे 
दौर दयनीय दुनिया का।  
लंबी-चौड़ी विचारपट्टिका 
उकेरे चित्र कलिकाल का। 

सूर्य निकला क्षितिज पर नहीं 
सत्ता-शक्ति के बाज़ार का।  
उड़नखटोला उतरा भारत में 
नहीं समय शोहरत के बखान का।  

©अनीता सैनी 

बुधवार, मई 13

ऊसर हो चुकी संवेदना



इंसान  इंसान के लिबास में 
तुम्हारे इर्द-गिर्द घूमते रहेंगे।  
वे युधिष्ठिर-सा अभिनय 
शकुनी-से पासे फेंकेंगे। 

ऊसर हो चुकी संवेदना 
स्मृतियों में यातना भोगेगी। 
क्रोध जलाएगा  अस्थियाँ 
विज्ञान उपचार तलाशेगा। 

वे आधिपत्य की उड़ान से 
गिद्द रुप में प्रहार करेंगे।  
करतब से कोयला बिखेरेंगे। 
इंसान की देह पैरों तले कुचलेंगे। 

स्वार्थ के कल्मष की चीख़ से सूर्य 
अंधकार में छिप जाएगा।  
 नीरव स्मृति हृदय पर गुँजाती 
 गलियारे से दौड़ती आएगी। 

©अनीता सैनी 

सोमवार, मई 11

एक चिड़िया की व्यथा



उसकी पीड़ा को
जब भी सहलाया मैंने
आँखों में साहस को और 
बलवती पाया मैंने। 

निर्मल पौधा क्षमादान का
 संजीदगी से सींचती आयी।  
छिपा रहस्य इंसानियत का
संवेदना से निखरा पाया।  

स्थूल जिव्हा मर्मान्तक की
शब्दजाल का न प्रभाव गढ़ा
पूछ रहा प्रिये पीड़ा मन की 
प्रीत जता वाकया नैनों में गढ़ा। 

पलकों से पोंछती अश्रु अपने
ज़ख़्मों ने राह कहीं और बनायी।  
एक चिड़िया ने यह व्यथा बतायी।  
आहट न सांसों को हो पायी। 

©अनीता सैनी  'दीप्ति'

रविवार, मई 10

माँ...कभी धूप कभी छांव



माँ...
 उजली धूप बनी जीवन में,
कभी बनी शीतल छांव, 
पथिक की मंज़िल बनी,
कभी पैरों की बनी ठांव 
माँ... 
भूखे की रोटी बन सहलाती,
 बेघर को मिला गंतव्य गांव, 
माँ तुम हृदय में रहती हो मेरे,
हो प्रेरक प्रेरणा की ठंडी छांव
माँ... 
संवेदना बन हृदय में समायी 
मिला वात्सल्य रुप निराकार,
हो सतरंगी फूलों की बहार, 
 अंतरमन में करुणा का भंडार 
माँ... 
नैनों से लुढ़कते चिर-परिचित,
मन के मनकों की हो बौछार,
तिमिर में हो प्रज्ज्वलित दीप,
माँ तुम सांसों का हो उद्गार
माँ..
तुम हो साहस की सौगात,
 चिरजीवन का साया बनी हर बार 
तुम्हारे अंतस में छिपी हूँ मैं,
 बन करुणा का कोमल किरदार।

© अनीता सैनी 'दीप्ति' 

शनिवार, मई 9

वह गुलमोहर


तुम्हें मालूम है ? 
तपिश सहता वह गुलमोहर,
आज भी ख़ामोश निगाहों से,  
अहर्निश तुम्हारी राह ताकता रहता है।  
जलती जेठ की दोपहरी में भी, 
लाल,नारंगी,पीली बरसता सतरंगी धूप, 
वह मंद-मंद मुस्कुराता रहता है।  
झरती सांसें जीवन की उसकी,  
सुकून की छतनारी छाया बनती ,  
वह छाया तुम्हें  पुकारती बहुत है। 

सहसा तुम्हारे आने की दस्तक से, 
उसने बदल लिया है लिबास अपना, 
अलमस्त झूलती-झूमती डालियों पर, 
पंछियों के फैले डैनों को सहलाता,  
हवा के हल्के झोंके से बिखेर रंग,  
 धूप के रंगीन  छींटे से मन मोह लेता है,  
 जलती सड़क नभ की बेचैनी  को देता, 
  ख़ुबसूरत कागज़ के फूलों-सा उपहार,  
इंतज़ार में वह तुम्हें याद करता बहुत है।  

दरमियाँ हैं दूरियाँ उसके तुम्हारे बीच, 
एहसास दिल से भुलाते क्यों नहीं, 
सन्नाटे से पूछो ख़ैरियरत उसकी, 
 शब्दों को शब्दों पर लुटाते क्यों नहीं,
दिल में गहरी है बेचैनी तुम्हारे,
दर्द समय का भुलाते क्यों नहीं, 
 खिड़कियों से झाँकता हुआ वह, 
पगडंडियों पर जीवन न्योछावरकर, 
वह बेज़ुबान अश्रु बहाता बहुत है। 

©अनीता सैनी 'दीप्ति'

बुधवार, मई 6

संजीदगी संग प्रश्न


तहजीब के मन्वंतर में,
भ्राँतिक अभिनय जग का खेल,   
अंधेरे में बंद ज़िंदगियाँ है,  
 समय-दीपक में नहीं है तेल। 

दबे पैरों की आहट थी  वो,  
रहस्य की ध्वनि है  मौन,  
भविष्य के गर्भ में छिपे चेहरे,  
वे तिलिस्मी लुटेरे कौन? 

निस्तब्ध मटमैले जलाशय  में,
अनचीह्नी झाँकती है आकृति,
ललाट पर बिखरी सलवटें,
नुकीले दाँत,अहं-दंश की है आवृत्ति।

हल्की काली पट्टी नैनों पर,
अवचेतन का है सारा खेल,
शून्य बिंदु-सा है गलियारा,
सत्य रथ की बुझी है मशाल।

संजीदगी संग प्रश्न अनुत्तरित,
रिसते निरंकुशता के गहरे घाव, 
उन्मुख अंबर को है ताकता,  
दीप्ति-दृग,सौम्य मुख प्रादुर्भाव।


©अनीता सैनी 'दीप्ति'

शनिवार, मई 2

शोहरत रत्नजड़ित मुखौटा



नैनों के झरोखे से झरती ज़िंदगियाँ, 
नहीं देख सकती लवणता में डूबी सांसें, 
वे स्वार्थ का लबादा ओढ़े पीड़ा पहुँचाते हैं, 
नहीं छिपा सकती अपनी संवेदना  को। 

वे सांत्वना देते हुए बारंबार तोड़ते हैं,  
 हार के एहसास की माला से जोड़ते हैं,  
 वे चुभते हैं इंसान की इंसानीयत को,  
 नहीं भुला सकती उनकी वेदना को। 

सुसभ्य संस्कारों के पतन का आकलन, 
 लालसाओं की दस्तक करती  विस्तार,
 हुनर की संज्ञा पर छलावे के प्रभुत्त्व का भार, 
 नहीं देख सकती मनीषा की आत्मवंचना को। 

आसान होगा सफ़र सांसों का जहां में,  
शोहरत का रत्नजड़ित मुखौटा पहनने से, 
प्रवचन में गूँथी वाकचातुर्यता यथार्थ को झुठलाती, 
नहीं देख सकती कर्म की अवेहलना को। 

© अनीता सैनी 'दीप्ति' 

शुक्रवार, मई 1

मिली थी उस मनस्वी से



मिट्टी के मटके-सी, 
जीवन चाक पर रखा करती, 
समय की अगन से,
 सद्भावना-सी निखरा करती, 
साँझ  ढले तारों से,
ढेरों बातें किया करती, 
 संयम संजीदगी की, 
 अर्धांगिनी बन नित संवरा करती। 

जेष्ठ महीने की,
 मध्य दोपहरी में टूटी टाटियों के,
छप्पर को बँधा करती,
सहती चिलचिलाती तेज धूप,
निर्मम लू के,
 थपेड़ों से देह अपनी सेका करती। 

पति न परिवार, 
न समाज का था संबल,
कुलटा नाम,
 पाकर बेवा शहीद की हर्षाई,
एक बार मिली थी
 उस सबला मनस्वी से,
 अंतस में,
 आशीष का सागर भर लायी। 

शब्दों का पंडाल,
 घटनाओं का लिए बैठी थी रेला,
आँगन के एक कोने में, 
मुद्दतों से लाचारी ढो रहा था ठेला,
पेट में छिपी भूख के, 
अनकहे अनगिनत नागफ़नी-सी,
 ज़िंदगी के थे कई अनुत्तरित प्रश्न !

©अनीता सैनी  'दीप्ति'