ज़िंदगियाँ उलझन में हैं ...
परिवेश में नमी बेचैनी की है
ख़ेमे में बँटा इंसान
मोम-सा पिंघलने लगा
मुँह पर बँधा है मास्क तभी
कुछ लोग
आँखों पर सफ़ेद पट्टी बाँधने लगे
और कहने लगे
देखना हम इतिहास रचेंगे
शोहरत के एक और
पायदान पर क़दम रखेंगे
वे आत्ममुग्ध हैं यह देख
अहंकार का पैमाना बढ़ने लगा
'मैं' का भाव बढ़ा
सर्वोपरि सर्वज्ञाता सर्वशक्तिमान हुआ
बच्चे बूढ़े जवान औरत पुरुष कुछेक की
रक्त वाहिनियों में
ये ही भाव प्रवाहित होने लगा
दर्द कराहता रहा
ग़रीब जन का जनपथ पर
उसी की चीख़ के
सभी सवाल शून्य होने लगे
भव्यता सँजोते स्वप्नों में
यथार्थ को स्वप्नरुपी पँख लगाने लगे
कुछ नुमाइंदे
धर्म के नाम पर नफ़रत बाँटने लगे।
© अनीता सैनी 'दीप्ति'
परिवेश में नमी बेचैनी की है
ख़ेमे में बँटा इंसान
मोम-सा पिंघलने लगा
मुँह पर बँधा है मास्क तभी
कुछ लोग
आँखों पर सफ़ेद पट्टी बाँधने लगे
और कहने लगे
देखना हम इतिहास रचेंगे
शोहरत के एक और
पायदान पर क़दम रखेंगे
वे आत्ममुग्ध हैं यह देख
अहंकार का पैमाना बढ़ने लगा
'मैं' का भाव बढ़ा
सर्वोपरि सर्वज्ञाता सर्वशक्तिमान हुआ
बच्चे बूढ़े जवान औरत पुरुष कुछेक की
रक्त वाहिनियों में
ये ही भाव प्रवाहित होने लगा
दर्द कराहता रहा
ग़रीब जन का जनपथ पर
उसी की चीख़ के
सभी सवाल शून्य होने लगे
भव्यता सँजोते स्वप्नों में
यथार्थ को स्वप्नरुपी पँख लगाने लगे
कुछ नुमाइंदे
धर्म के नाम पर नफ़रत बाँटने लगे।
© अनीता सैनी 'दीप्ति'