उसके रुँधे कण्ठ में पानी नहीं था
शर्म स्वयं का खोजती अस्तित्व
चित्त से उलझ कोलाहल में लीन
भावबोध से भटक शब्द बन चुकी थी।
शब्द मौन साधे स्वर की खोज में
दरकती चुप्पी संग सन्नाटे से मिला
उधार के शब्दों ने शब्द माँगे भाव से भीगे
हृदय के कपाट पर चाहत मलने के लिए।
चोट के अनंत निशान नवाँकुर से उभरे
कुछ व्यर्थ के शब्द बिखरे मन आँगन में
अर्थ के नुकीले दाँत प्रभाव में खिसियाए
निंदा के ठहरे होंठ भी द्वेष में थिरके।
घाव बबूल के काँटों से गहरे पड़े मन में
शब्द सहमे चित्त का उद्गार बिका बाज़ार में
देख जीवन लकीरों का टूटा डेढ़ापन
भ्रम का भार तड़प-तड़पकर रोया।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'