तुम्हें ये जो पूर्णता का बोध
हर्षाए जा रहा है
ये अनभिज्ञता है तुम्हारी
थकान नीरसता छिछलापन है
तुम्हारे मन-मस्तिष्क का
उत्सुकता उत्साह पर
अनचाहा विराम चिन्ह है
अपूर्णता अज्ञानता मिथ्या है जो
झाँकतीं है समझ की दीवार के
उस पार नासमझ बन
समर्पण को हाँकता अधूरापन
तुम्हारे विनाश का है प्रारब्ध।
पूर्णता के नशे में
तुमने ये जो ज़िंदा पेड़ काटे हैं
जूनून दौड़ेगा इनकी नसों में
जड़े ज़िंदगी गढ़ेगी दोबारा
इन पेड़ों की टहनियों को
ज़िद पर झुकाईं हैं तुमने ये टूटेगी नहीं
लहराएगी नील गगन में स्वछंद ।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'
हिरण्यकश्यप और रावण भी स्वयं को पूर्ण समझते थे किन्तु उनका अपना अंत उनके बस में नहीं हो सका था.
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर रचना की आत्मा की के भाव प्रत्यक्ष प्रकट करती प्रतिक्रिया हेतु। सही कहा आपने पूर्णता का एहसान विनाश है। आशीर्वाद बनाए रखे।
हटाएंसादर प्रणाम
बिल्कुल सत्य।
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया अनुज ।
हटाएंजहाँ अपने आप में पूर्णता तो भाव आ गया वहीं अहंकार भी स्वतः ही आ गया और अहंकार के साथ ही विनाश भी...यथार्थ को उकेरती सुन्दर रचना ।
जवाब देंहटाएंदिल से आभार मीना दी सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु।आपकी प्रतिक्रिया संबल है मेरा।आशीर्वाद बनाए रखे।
हटाएंसादर
आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल बुधवार (21-10-2020) को "कुछ तो बात जरूरी होगी" (चर्चा अंक-3861) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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बहुत बहुत शुक्रिया सर चर्चामंच पर स्थान देने हेतु।
हटाएंआपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज मंगलवार 20 अक्टूबर 2020 को साझा की गई है.... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ सर सांध्य दैनिक पर स्थान देने हेतु।
हटाएंपूर्ण तो अवतार भी नहीं हो पाए , सुंदर रचना
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ से मनोबल बढ़ाने हेतु ।
हटाएंसुन्दर
जवाब देंहटाएंबहुत बहुत शुक्रिया सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
हटाएंबहुत सुन्दर
जवाब देंहटाएंसादर आभार सर मनोबल बढ़ाने हेतु ।
हटाएंआदरणीया अनिता सैनी "दीप्ति" जी, नमस्ते 🙏! बहुत सुंदर, भावप्रधान रचना है। ये पंक्तियाँ बहुत कुछ कहती है:
जवाब देंहटाएंउत्सुकता उत्साह पर
अनचाहा विराम चिन्ह है --ब्रजेन्द्र
सादर आभार सर मनोबल बढ़ाने हेतु।
हटाएंबहुत सुंदर और सार्थक सृजन
जवाब देंहटाएंसस्नेह आभार सखी मनोबल बढ़ाने हेतु।
हटाएंतुमने ये जो ज़िंदा पेड़ काटे हैं
जवाब देंहटाएंजूनून दौड़ेगा इनकी नसों में
जड़े ज़िंदगी गढ़ेगी दोबारा
इन पेड़ों की टहनियों को
ज़िद पर झुकाईं हैं ये टूटेगी नहीं
लहराएगी नील गगन में स्वछंद ,,,,,, बहुत सुंदर एवं सत्य को प्रेरित करतीं रचना
सादर आभार आदरणीय दी मनोबल बढ़ाने हेतु.
हटाएंसादर
आज पहली बार पढ़ा आपको |इस सशक्त रचना से परिचय के बाद गूगी गुडिया से सम्पर्क करने तो अब बार बार आना ही पड़ेगा | सचमुच यह आपकी एक गहन संदेश वाहक , मन पर अक्षय छाप छोड़ने वाली अपने आप में पूर्ण रचना है |
जवाब देंहटाएंआभारी हूँ सर मनोबल बढ़ाने हेतु सारगर्भित प्रतिक्रिया हेतु.
हटाएंसादर
पूर्णता के नशे में
जवाब देंहटाएंतुमने ये जो ज़िंदा पेड़ काटे हैं
जूनून दौड़ेगा इनकी नसों में
जड़े ज़िंदगी गढ़ेगी दोबारा
इन पेड़ों की टहनियों को
ज़िद पर झुकाईं हैं तुमने ये टूटेगी नहीं
लहराएगी नील गगन में स्वछंद ।
पूर्णता के नशे में विध्वंस का खेल खेलने वाले भूल जाते हैं कि विनाश उन्हीं का निकट है अहंकार जब सर चढ़कर बोलता है...
बहुत ही लाजवाब सृजन
वाह!!!
दिल से आभार आदरणीय दी मनोबल बढ़ाती प्रतिक्रिया हेतु।
जवाब देंहटाएंसादर