वह चला गया
कुछ बड़बड़ाते हुए
फिर कभी न लौटने के
वादे के साथ
ख़ामोशी की धुँध में
उदासी को ओढ़े
मानवमंशा से मिले ज़ख़्मों को
स्वाभिमान की चादर से
बार-बार ढकता हुआ
पलकें झुकाए
न हिला न डुला
न कुछ बोला
बस चला गया चुपचाप।
मन की वीथियाँ
बुहारती-बुहारती
थक गई थी मैं
थकान मेरे कंधों पर
ज़िद से आ बैठी
और एक-दो तमाचे मैंने भी जड़े
एक क्षण पलकें उठाईं
दिल की गहराइयों में उतर
गलती पूछी थी उसने
फिर ओढ ख़ामोशी की चादर
कुछ कहा न सुना
अनसुने कर मेरे अहसास
बस चला गया चुपचाप।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'