मैं यह नहीं कहूँगी
कि उसकी समझ के पिलर
उखड़ चुके हैं और वह
जीवन से इतर भटक चुकी थी।
कदाचित मन की नीरवता
रास्ते के छिछलेपन में उलझी
भूख की खाई को भरते हुए
समय के साथ ही विचर रही।
इसलिए मैं यह कहूँगी
कि भय से अनभिज्ञ दौड़ते हुए
वाकिया घटित होने पर
ज़ख़्मी और हताश अवस्था में भी
इंतज़ार करती रही उपचार का
ज़िंदगी में मिली बहुताए
ठोकरों के उपरांत
चोट खाने पर शाँत अवस्था में
आँखों में मदद की गुहार लिए
वह वहीं ज़मीन पर ही पड़ी रही।
किसी की संपति नहीं होने पर
आवारापन की पीड़ा भोगते हुए
घटित घटना घायल हो घबराई नहीं
कुछ नहीं थी मेरी अपनी हो गई।