नील समंदर नीर को तरसे
नयना नील गगन निहारे
व्याकुल पपीहा प्रीत में
पीहू-पीहू की हूक हुंकारे।
घुमड़-घुमड़ घटाएँ बरसें
बादल ओट छिपे चंचला
शुष्क तरु खिलीं कोपलें
अहसास अंतस पर मचला
घट प्रेम का फूटा समीर पर
मुग्ध मध्यम पवन दुलारे।।
चपल चंचल अल्हड़ बूँदें
पलकों पर सपना बन उतरी
कर्म रेख का झूले झूलना
चक्षु कोर में उलझी झरी
अजब खेल है विधना का भी
लगन सीप की स्वाति पुकारे।।
पीर हृदय को मंथती रहती
तपता रहता है ज्यों फाग
सूनी अँखियाँ राह निहारे
जाग रहा मन का अनुराग
विरह हूक ऐसी उठती
सूर्य ताप से जलधर कारे।।
@अनीता सैनी 'दीप्ति'